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________________ • प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. पूज्यपाद ने ही तो हमें बताया था "स्वाध्याय ध्यान सम्पत्तया परमात्मा प्रकाशते"-यही तो परमात्मा की प्राप्ति का साधन है-'स्वाध्यायाद् ध्यानम्ध्यस्तां ध्यानात् स्वाध्याय भाभनेत् ।' 'दशवैकालिक' के चार उद्देश्यों को न जाने कितनी बार उनके श्री मुख से सुना है-पढ़ा है-स्वाध्याय से ज्ञान प्राप्ति होती है, चित्त एकाग्र होता है, समाधि व शांति में स्थापना होती है-दूसरों को भी इसमें ले जाते हैं । पर क्या हम स्वाध्याय से यह सब कर पाए हैं ? 'जिनवाणी' पत्रिका में उनके किसी प्रवचन में पढ़ा था 'जं इच्छसि अप्पणतो, जं च णं इच्छसि अप्पणतो, तं इच्छ परस्स वि, एत्तिणगं जिण सासणं । जो तुम अपने लिए चाहते हो, वही दूसरों के लिए भी चाहो, जो अपने लिए नहीं चाहते, वह दूसरों के लिए भी नहीं-यही जिन शासन है । है तो, पर हम करते हैं ठीक इसके विपरीत, चाहते हैं अपने लिए कुछ और दूसरों के लिए कुछ और ! कैसा वैपरत्य आ गया है ? कुछ दिनों पूर्व नालडियार, (आचार्य पदुमनार-रचित-प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर द्वारा प्रकाशित) सुभाषित संग्रह मिला । उसमें षट उपदेश थे । अच्छे लगे-महत्त्वपूर्ण । अवेहि धर्म भव काल भीत:, परेरितं मा श्रुणुं घोर वाक्यम् । त्वं वंचनां मुंच कुमार्ग गन्त्रा मा याहि, वाक्यं महतां श्रुणु त्वम् ।।१७२।। जानो तुम धर्म का पथ, रहो काल से भीत, कटु वाक्य से बचो, निष्कपट रहो, खल व्यक्तियों को तजो और सज्जन-संतों के उपदेश से जीवन का विकास करो। हर धर्म, हर आचार्य, हर संत यही बताते हैं । हमारे आचार्य श्री ने तो बार-बार यही बताया, यही सिखाया, 'सब से करते मेल चलो'–पर न जाने क्यों हम केवल सुनते ही रहे । इसे गुनने का अवकाश ही नहीं मिला । कैसी विडम्बना है यह ? आकाशवाणी के केन्द्र से महादेवी का यह गीत प्रसारित हो रहा है :तन्द्रिल निशीथ में ले आए, गायक तुम अपनी अमर बीन । प्राणो में भरने स्वर नवीन ! तममय तुषारमय कोने में, छेड़ा जब तुमने राग एक । प्राणों-प्राणों के मंदिर में, जल उठे बुझे दीपक अनेक ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003843
Book TitleJinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1992
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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