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तपोमार्ग को शास्त्रीय साधना
पंचम गणधर श्री सुधर्मास्वामी जम्बू से कहते हैं:
जहा उपावगं कम्मं, राग दोस समज्जियं । खवेइ तवसा भिक्खू, तमेगग्गमणो सुरण || १॥
अय जम्बू ! राग-द्व ेष से संचित पाप कर्म को तपस्या के द्वारा मुनि किस प्रकार खपाता- नाश करता है, इसकी मैं विधि कहूँगा, जिसको तू एकाग्र मन से श्रवरण कर ।
तप करने वाले को आस्रव त्याग का ध्यान रखना आवश्यक है, क्योंकि बिना आस्रव त्याग के कर्म का जल निरन्तर श्राता रहेगा और जब तक नये कर्म निरन्तर आते रहेंगे, उनको खपाने की क्रिया का खास लाभ नहीं होगा, इसलिये शास्त्र में कहा है :
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पारिवह- मुसावाया, प्रदत्त- मेहुणा - परिग्गहा विरनो ।
राइ भोयरण- विरो, जीवो हवइ अगासवो ||२||
जो साधक हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह का त्यागी एवं रात्रिभोजन से विरत होता है, वह प्रास्रव रहित हो जाता है, इसलिए उसके कर्म- जल का श्रागमन रुक जाता है । फिर अनास्रव की दूसरी स्थिति बतलाते हैं :
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पंच समिश्र तिगुत्तो, कसा जिइदियो । गारवो य निस्सल्लो, जीवो हवइ प्रणासवो || ३ ||
जो ईर्या आदि पाँच समितियों से युक्त और मनोगुप्ति आदि तीन गुप्तियों से गुप्त होता है, क्रोधादि कषाय रहित और जितेन्द्रिय है । ऋद्धि, रस और साता रूपगौरव का जो त्यागी और निश्शल्य होता है, वह प्रास्रव रहित होता है ।
एएसि नु विवच्चासे, रागदोस समज्जियं । खवेइ उ जहा भिक्खु
तमेगग्गमणो
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सुण || ४ ||
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