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• व्यक्तित्व एवं कृतित्व
गुरु कारीगर के सम जग में, वचन जो खावेला। पत्थर से प्रतिमा जिम वो नर, महिमा पावेला ॥घणो।।६।। कृपा दृष्टि गुरुदेव की मुझ पर, ज्ञान शांति बरसावेला। 'गजेन्द्र' गुरु महिमा का नहिं कोई, पार मिलावेला ॥घणो।।७।।
( ११ )
गुरु-विनय (तर्ज-धन धर्मनाथ धर्मावतार सुन मेरी) श्री गुरुदेव महाराज हमें यह वर दो।
रग-रग में मेरे एक शान्ति रस भर दो । टेर ।। मैं हूँ अनाथ भव दुःख से पूरा दुखिया, प्रभु करुणा सागर तू तारक का मुखिया । कर महर नजर अब दीननाथ तब कर दो ।। रग ।। १ ।। ये काम क्रोध मद मोह शत्रु हैं घेरे, लूटत ज्ञानादिक संपद को मुझ डेरे । अब तुम बिन पालक कौन हमें बल दो ।। रग ।।२।। मैं करूं विजय इन पर आतम बल पाकर, जग को बतला दूं धर्म सत्य हर्षाकर । हर घर सुनीति विस्तार करूं, वह ज़र दो ।। रग ।। ३ ।। देखी है अद्भुत शक्ति तुम्हारी जग में, अधमाधम को भी लिये तुम्हीं निज मग में। मैं भी मांगू अय नाथ सिर धर दो ।। रग ।। ४ ।। क्यों संघ तुम्हारा धनी मानी भी भीरू, सच्चे मारग में भी न त्याग गंभीरू । सबमें निज शक्ति भरी प्रभो ! भय हर दो ।। रग ।। ५ ।। सविनय अरजी गुरुराज चरण कमलन में, कीजे पूरी निज विरुद जानि दीनन में । आनन्द पूर्ण करी सबको सुखद वचन दो । रग ।। ६ ।।
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