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• व्यक्तित्व एवं कृतित्व
जैसे रंग-बिरंगे खिले हुए पुष्पों का सार गंध है। यदि पुष्प में गंध नहीं और केवल रूप ही है तो वह दर्शकों के नेत्रों को तो तृप्त कर सकता है किंतु दिल और दिमाग को ताजगी नहीं प्रदान कर सकता है। उसी प्रकार साधना में समभाव यानी सामायिक निकाल दी जाय तो वह साधना निस्सार है, केवल नाम मात्र की साधना है। समता के अभाव में उपासना उपहास है । जैसे द्रव्य सामायिक व द्रव्य प्रतिक्रमण को बोलचाल की भाषावर्गणा तक ही सीमित रखा गया तो वह साधना पूर्ण लाभकारी नहीं है । समता का नाम ही आत्मस्पर्शना है, आत्मवशी होना है, समता प्रात्मा का गुण है।
'भगवती सूत्र' में वर्णन है कि पापित्य कालास्यवेशी अनगार के समक्ष तुंगिया नगरी के श्रमणोपासकों ने जिज्ञासा प्रस्तुत की थी कि सामायिक क्या है और सामायिक का प्रयोजन क्या है ?
कालास्यवेशी अनगार ने स्पष्ट रूप से कहा कि आत्मा ही सामायिक है और आत्मा ही सामायिक का प्रयोजन है।
आचार्य नेमीचन्द्र ने कहा है कि परद्रव्यों से निवृत्त होकर जब साधक की ज्ञान चेतना यात्म स्वरूप में प्रवृत्त होती है तभी भाव सामायिक होती है।
श्री जिनदासगणी महत्तर ने सामायिक आवश्यक को प्राद्यमंगल माना है। अनन्त काल से विराट् विश्व में परिभ्रमण करने वाली प्रात्मा यदि एक बार भाव सामायिक ग्रहण करले तो वह सात-आठ भव से अधिक संसार में परिभ्रमण नहीं करती । यह सामायिक ऐसी पारसमरिण है।
सामायिक में द्रव्य और भाव दोनों की आवश्यकता है। भावशून्य द्रव्य केवल मुद्रा लगी हुई मिट्टी है, वह स्वर्ण मुद्रा की तरह बाजार में मूल्य प्राप्त नहीं कर सकती, केवल बालकों का मनोरंजन ही कर सकती है। द्रव्य शून्य भाव केवल स्वर्ण ही है जिस पर मुद्रा अंकित नहीं है, वह स्वर्ण के रूप में तो मूल्य प्राप्त कर सकता है किन्तु मुद्रा के रूप में नहीं। द्रव्ययुक्त भाव स्वर्ण मुद्रा है। इसी प्रकार भावयुक्त द्रव्य सामायिक का महत्त्व है। द्रव्यभाव युक्त सामायिक के साधक के जीवन में हर समय सत्यता, कर्तव्यता, नियमितता, प्रामाणिकता, और सरलता सहज ही होना स्वाभाविक है। ये सब आत्मा के गुण हैं । सामायिक के महत्त्व को बताते हुए भगवान् महावीर ने पुणिया श्रावक का उदाहरण दिया है । सामायिक से नरक के दुःखों से मुक्त हुआ जा सकता है। महावीर ने सच्ची सामायिक के मूल्य को कितना महत्त्व दिया है। सामायिक का साधक भेद विज्ञानी होता है। सामान्यतः सामायिक का करनेवाला श्रावक है और श्रावक का गुणस्थान पांचवां है और भेदविज्ञान चौथे गुणस्थान पर ही हो जाता है।
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