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है । उनके प्रवचनों में अनेक स्थानों पर इस अवधारणा का उल्लेख हुआ है । आचार्यश्री के मतानुसार - " प्रतिकूल मार्ग की ओर जाते हुए जीवन को मोड़कर स्वभाव के अभिमुख जोड़ने के अभ्यास को साधना कहते हैं ।"" इसी को स्पष्ट करते हुए आगे बताया गया है - 'सत्य को जानते और मानते हुए भी चपलता, कषायों की प्रबलता और प्रमाद के कारण जो प्रवृत्तियाँ बहिर्मुखी गमन करती हैं, उनको अभ्यास के बल से शुद्ध स्वभाव की ओर गतिमान करना, इसका नाम साधना है । साधना के आध्यात्मिक स्वरूप की रक्षार्थ साधना क्षेत्र में बाह्य और प्रांतरिक परिसीमन की नितान्त आवश्यकता है तथा दोनों का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है । आचार्यदेव का विचार है - " इच्छाओं की लम्बी-चौड़ी बाढ़ पर यदि नियन्त्रण नहीं किया गया तो उसके प्रसार में ज्ञान और विवेक आदि सद्गुण प्रवाह - पतित तिनके की तरह बह जाएँगे । " २ प्राचार्यश्री का मन्तव्य रहा कि "त्याग-वैराग्य के उदित होने पर सद्गुण अपने आप आते हैं जैसे उषा के पीछे रवि की रश्मियाँ स्वतः ही जगत् को उजाला देती हैं । "3
साधना को प्राचार्यश्री ने अभ्यास के रूप में देखा है । इसलिए वे प्रवचनों में फरमाते थे - 'साधना या अभ्यास में महाशक्ति है । वे अपने प्रवचनों में सर्कस के जानवरों के निरन्तर अभ्यास का उदाहरण देकर मानव जीवन में साधना की उपलब्धियों पर बल देते थे ।
व्यक्तित्व एवं कृतित्व
ज्ञान, दर्शन, चारित्र की साधना के विषय में प्राचाय प्रवर का विचार था 'ज्ञान के अभाव में साधना की ओर मनुष्य की प्रवृत्ति नहीं होती, अतः सर्व प्रथम मनुष्य को ज्ञान प्राप्ति में यत्न करना चाहिए ।४ प्रारम्भ और परिग्रह साधना के राजमार्ग में सबसे बड़े रोड़े हैं । जैसे केंचुली साँप को अन्धा बना देती है वैसे ही परिग्रह की अधिकता भी मनुष्य के ज्ञान पर पर्दा डाल देती है । ज्ञान
महिमा को बताते हुए कहा गया- 'त्याग के साथ ज्ञान का बल ही साधक को ऊँचा उठाता है ।' आचार्यश्री का मत है 'विचार शुद्धि के बिना आचार शुद्धि सम्भव नहीं है । सम्यग्दर्शन को सरल किन्तु सारगर्भित रूप 1 में प्रस्तुत करते हुए आचार्यश्री ने बताया- 'धर्म-अधर्म, पूज्य पूज्य आदि का विवेक रखकर चलना सम्यग्दर्शन है | सम्यग्वारित्र के सम्बन्ध में बताया गया 'क्रिया के प्रभाव में ज्ञान की पूर्ण सार्थकता नहीं है ।'
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१. जिनवाणी (मासिक) अगस्त १६८२, पृ. १
२. 'जिनवाणी', अप्रैल १६८१, पृ. १-२ ३. जिनवाणी, अक्टूबर १६७०, पृ. ५-६
४. आध्यात्मिक प्रालोक, पृ. ३७ ५. आध्यात्मिक आलोक, पृ. १५-१७
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