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• प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
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फैला सकेगा ? नहीं। जब तक दर्पण में स्थिरता का अभाव है, मलिनता है
और आवरण है, इन तीनों में से कोई भी दोष विद्यमान है, तब तक दर्पण सूर्य किरणों को ठीक तरह ग्रहण नहीं कर सकता।"
(प्रार्थना-प्रवचन, पृ. १०६) दर्पण को मांजा नहीं। बिना मांजे दर्पण अपना तेज कैसे प्रगट कर सकता है ? इसी बात को स्पष्ट करते हुए प्राचार्य प्रवर 'प्रार्थन-प्रवचन' पृष्ठ १०९ पर पुनः फरमाते हैं-"वीतराग स्वरूप के साथ एकाकार होने के साधन हैं-प्रार्थना, चिन्तन, ध्यान, स्वाध्याय, सत्संग, संयम प्रादि । इन साधनों का आलम्बन करने से निश्चय ही वह ज्योति प्रकट होगी।" आत्मा को पतन के मार्ग पर धकेलने वाले दो प्रमुख कारण हैं—पहला अहं (मैं हूँ) और दूसरा ममकार (मेरा है)।
इसी बात को प्राचार्य श्री इन शब्दों में व्यक्त करते हैं-"प्रात्मा एक भाव है । यह खुद तिरने वाली है और दूसरों को तारने वाली है। लेकिन आत्मा रूपी नाव के नीचे छेद हुआ चाहना या कामना का। तब कर्मों का पानी नाव में आने लगा । नाव लबालब पानी से भर गई और डूब गई।"
(गजेन्द्र व्याख्यानमाला भाग ६ में पृष्ठ २८१) __ इच्छा की बेल को काटे बिना और समभाव लाये बिना सुख की प्राप्ति हो नहीं सकती। "गजेन्द्र व्याख्यानमाला" भाग ६ में पृष्ठ २८५ पर आप बताते हैं- मन पुद्गल है, मन और जल का स्वभाव एक है। दोनों का स्वभाव नीचे जाने का है। राग में ममता है, आकर्षण है। द्वष के साथ अहंकार जुड़ा है।" इसीलिये आचार्य श्री कहते हैं।
“ममता-विसर्जन से ही दुःख मिटता है। वस्तु मेरी नहीं, मेरी निश्रा में है" यही मानकर अपना जीवन व्यवहार कर ।
पृ० २८८ पर प्राचार्य श्री आगे बतलाते हैं१. भौतिक वस्तु में ममता मत रखो। २. विचार-शुद्धि साधना के लिये आवश्यक है। ३. शक्ति रहते त्याग करने में प्रानन्द है । ४. ज्ञान भाव पूर्वक राग का त्याग हो । ५. धन पराया है, रखवाली का काम अपना है।
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