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प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
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निर्मोह दशा में प्रार्थी अत्यन्त भाव-विभोर हो तादात्म्यता का अनुभव करने लगे, ऐसी प्रार्थना आत्म-शुद्धि की पद्धति है । आंतरिक गुणों को दृष्टि में रखकर प्रार्थनीय (प्रार्थ्य) अरिहन्त, सिद्ध या साधना पथ पर अग्रसर हुए निर्ग्रन्थ महात्मा कोई भी हो सकता है । वह आध्यात्मिक वैभव, जो परमात्मवाद को प्राप्त करता है उसे विकसित करने का साधन प्रार्थना है । वीतराग की प्रार्थना से आत्मा को एक सम्बल मिलता है, शक्ति प्राप्त होती है।
एक प्रश्न उपस्थित होता है कि स्तुति-प्रार्थना की परम्परा वैदिक परम्परा का अनुकरण है; जैन दर्शन के अनुसार वीतरागी पुरस्कर्ता या दण्डदाता नहीं है फिर प्रार्थना का क्या प्रयोजन ?; याचना कभी श्रेष्ठ नहीं होती आदि-आदि । आचार्य श्री ने एक-एक प्रश्न उठा कर उनका समाधान प्रस्तुत किया और ग्रन्थिभेद करते हुए निम्रन्थ हो जाने की कला को अनावृत्त कर दिया।
गणधर रचित साहित्य में, 'सूत्रकृतांग' आदि आगम में, 'विशेषावश्यक भाष्य' में स्तुति-प्रार्थना के बीज विद्यमान हैं । 'सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु, तित्थयरा मे पसीयंतु' प्रार्थना ही है ।
तीर्थंकरों की जिनवाणी की आज्ञा का मैं पालन करूं यही तो व्यवहार से तीर्थंकरों का प्रसन्न होना है । जिसकी आज्ञा मानी जाती है वह प्रसन्न होता ही है।
कर्तृत्व दो प्रकार का होता है-(१) साक्षात्कर्तृत्व, जिसमें कर्ता के मन-वचन-काया का सीधा प्रयोग हो और (२) कर्ता के योगों को सीधा व्यापार नहीं होता किन्तु उसकी दृष्टि या कृपा से कार्य हो जाता है । (प्रार्थना प्रवचन, पृ० ४४) सूर्य या वायु के साक्षात्कर्ता होने की आवश्यकता नहीं है तथापि उनका सेवन नीरोगता प्रदान करता है और सेवन न करने वाले उस लाभ से वंचित रहते हैं।
याचना वह हेय है जो राग-द्वेष से आवेषित हों । जहां व्यवहार भाषा से याचना हो और प्रार्थी तथा प्रार्थ्य के भेद का अवकाश ही निश्चय नय की दृष्टि से न हो, ऐसी प्रार्थना स्वयं की ही प्रार्थना होती है, याचना नहीं।
प्रार्थना का जितना स्पष्ट और हृदयहारी निरूपण गुरुदेव ने प्रस्तुत किया, वह प्राचार्य श्री के संगीत साधक तथा भक्त हृदय, अनन्य करुणामूर्ति होने का निदर्शन प्रस्तुत करता है ।
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