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________________ ६२ • " बिना दान के निष्फल कर हैं, शास्त्र श्रबण बिन कान । व्यर्थ नेत्र मुनि दर्शन के बिन, तके पराया गात ॥ धर्म स्थान में पहुँच सके ना इनके सकल करण जग में, है खाकर सरस पदार्थ बिगाड़े, बोल बिगाड़े बात । वृथा मिली वह रसना, जिसने गाई गुन जिन गुणगात ॥" व्यक्तित्व एवं कृतित्व व्यर्थं मिले वे पाँव । सत्संगति का दांव ।। आचार्य श्री ने अपने जीवन को ज्ञान, दर्शन, चारित्र और दान, शील, तप, भाव की आराधना में मनोयोगपूर्वक समर्पित कर सार्थक किया । संथारापूर्वक समाधिभाव में लीन हो आपने मृत्यु को मंगल महोत्सव में बदलकर सचमुच अपनी “संकल्प” कविता में व्यक्त किये हुए भावों को मूर्त रूप प्रदान किया है Jain Educationa International गुरुदेव चरण वन्दन करके, मैं नूतन वर्ष प्रवेश करूँ । शम-संयम का साधन करके, स्थिर चित्त समाधि प्राप्त करूँ ॥ १ ॥ तन मन इन्द्रिय के शुभ साधन, पग-पग इच्छित उपलब्ध करूँ । एकत्व भाव में स्थिर होकर, रागादिक दोष को दूर करूँ || २ || हो चित्तसमाधि तन मन से, परिवार समाधि से विचरूँ । अवशेष क्षरणों को शासनहित, अर्पण कर जीवन सफल करूँ || ३ || निन्दा विकथा से दूर रहूँ, निज गुरण में सहजे रमण करूँ । गुरुवर वह शक्ति प्रदान करो, भवजल से नैया पार करूँ || ४ | शमदम संयम से प्रीति करूँ, जिन श्राज्ञा में अनुरक्ति करूँ । परगुण से प्रीति दूर करूँ, “गजुमुनि" यो आंतर भाव धरूँ ||५|| निष्कर्षत: : कहा जा सकता है कि आपने कविता को विचार तक सीमित नहीं रखा, उसे आचार में ढाला है । यही आपकी महानता है । For Personal and Private Use Only - अध्यक्ष, हिन्दी - विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर www.jainelibrary.org
SR No.003843
Book TitleJinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1992
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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