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• प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
"यह जिन शासन की महिमा, जग में भारी, लेकर शरणा तिरे अनन्त नर-नारी।"
की टेर श्रोताओं के हृदय में बराबर गूंजती रहती है । इसकी रचना सं. २०२६ में डेह गाँव (नागौर) में की गई थी।
आचार्य श्री ने "उत्तराध्ययन" और "अन्तगड़ सूत्र" के प्रेरक चरित्रों को लेकर भी कई चरित काव्यों की रचना की है यथा-भृगुपुरोहित धर्मकथा, प्रत्येक बुद्ध नमि राजऋषि, जम्बूकुमार चरित, मम्मण सेठ चरित, ढंढण मुनि चरित, विजय सेठ, विजयासेठानी चरित, जयघोष विजयघोष चरित, महाराजा उदायन चरित आदि । ये चरित काव्य बिविध राग-रागनियों में ढालबद्ध हैं। इनका मुख्य संदेश है-राग से विराग की ओर बढ़ना, विभाव से स्वभाव में आना, इन्द्रियजयता, आत्मानुशासन, समता, शांति और वीतरागता ।
४. पद्यानुवाद-आचार्य श्री प्रामगनिष्ठ विद्वान् व्याख्याता, कवि और साहित्यकार थे । आपका बरावर यह चिन्तन रहा कि समाज शास्त्रीय अध्ययन और स्वाध्याय की ओर प्रवृत्त हो, प्राकृत और संस्कृत के अध्ययन-अध्यापन के प्रति उसकी रुचि जगे। इसी उद्देश्य और भावना से आपने आत्मप्रेरणा जगाने वाले 'उत्तराध्ययन', 'दशवैकालिक' जैसे आगम ग्रन्थों का संपादन करते समय सहज, सरल भाषा शैली में उनके पद्यानुवाद भी प्रस्तुत किये, ताकि जनसाधारण आगमिक गाथाओं में निहित भावों को सहजता से हृदयंगम कर सके । आपके मार्गदर्शन में पण्डित शशीकान्त शास्त्री द्वारा किये गये पद्यानुवाद सरल, स्पष्ट और बोधगम्य हैं । आपने 'तत्वार्थसूत्र' का भी पद्यानुवाद किया, जो अप्रकाशित है।
आचार्य श्री का कवि रूप सहज-सरल है। गुरु गम्भीर पांडित्य से वह बोझिल नहीं है । भाषा में सारल्य और उपमानों में लोकजीवन की गंध है। जीबन में अज्ञान का अंधकार हटकर ज्ञान का प्रकाश प्रस्फुटित हो, जड़ता का स्थान चिन्मयता ले, उत्तेजना मिटे और संवेदना जगे, यही आपके काव्य का उद्देश्य है । “सच्ची सीख' कविता में आपने स्पष्ट कहा है जो हाथ दान नहीं दे सकते, वे निष्फल हैं, जो कान शास्त्र-श्रवण नहीं कर सकते वे व्यर्थ हैं, जो नेत्र मुनि-दर्शन नहीं कर सकते, वे निरर्थक हैं, जो पाँव धर्म स्थान में नहीं पहुँचते, उनका क्या औचित्य ? जो जिह्वा 'जिन' गुणगान नहीं कर सकती, उसकी क्या सार्थकता ?
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