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कर्म-विचार ]
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(ख) ज्ञानदर्शनयो रोधौवेद्यं मोहायुषी तथा । नाम गोत्रान्तरायाश्च मूल प्रकृतयः स्मृताः ।।
-तत्त्वार्थसार, पंचमाधिकार, सम्पादक पण्डित पन्नालाल साहित्याचार्य, श्री गणेशप्रसाद वर्णी ग्रंथमाला, डुमराव बाग, अस्सी, वाराणसी-५, प्रथम संस्करण १६ अप्रेल १६७०, श्लोकांक २२,
पृष्ठांक १४५ (ग) अट्ठ कम्मपगडीओ पन्नत्राओ, तं जहा गाणावरणिज्जं
दंसरणावरणिज्जं, वेयरिणज्जं, मोहणिज्जं, पाउयं, नामं, गोर्य, अंतराइयं ।
--प्रज्ञापना २१११
१७--(क) पड-पडिहार-सि-मज्ज, हड-चित्त-कुलाल-मंडगारीणं ।
जह एससि भावा, कम्माण वि जाण तह भावा ।।
-समणसुत्त, ज्योतिर्मुख, वही, श्लोकांक ६६,
पृष्ठांक २२-२३ (ख) अर्हत्प्रवचन, सम्पादक पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ, वही,
श्लोकांक १०, पृष्ठांक १६ ।
१८-अपभ्रंश वाङमय में व्यवहृत पारिभाषिक शब्दावलि, डॉ. आदित्य
प्रचण्डिया 'दीति' परामर्श, खंड ५, अंक ४, सितम्बर १९८४, सम्पादक सुरेन्द्र बारलिगें मादि, पुणे विश्वविद्यालय प्रकाशन, पुणे,
पृष्ठांक ३२४ । १६-अन्याः पञ्च नव द्वे च तथाष्टाविंशतिः क्रमात । चतस्रश्च त्रिसंयुक्ता नवति च पञ्च च ।।
-तत्त्वार्थसार, पंचमाधिकार, वही, श्लोकांक २३,
पृष्ठाक १४६-१५५ । २० -(क) शुभाशुभोपयोगाख्यनिमित्तो द्विविधस्तथा । पुण्य-पाप तया द्वधा सर्व कर्म प्रभिद्यते ।।
-तत्त्वार्थसार, पंचमाधिकार, श्लोकांक ५१,
पृष्ठांक १५८ । (ख) सुह परिणामो पुण्णं, असुहो एवं ति हवदि जीवस्स ।
--पंचास्तिकाय १३२
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