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________________ सम्पादकीय 'हम तो कबहु न निज घर आये । पर घर फिरत बहुत दिन बीते, नाम अनेक धराये ।। अध्यात्मप्रवण कवि द्यानतराय की उपर्युक्त पंक्तियाँ जीव के भव-भ्रमण की पीड़ा और ग्लानि को व्यक्त करती हैं। 'निज घर' हमारा आत्म-स्वभाव है और 'पर घर' यह संसार है। जीवात्मा अपने कर्मानुसार विविध योनियाँ धारण कर अनादि काल से संसार में भटक रही है। इस भटकन और भ्रमण का कारण आत्मा के साथ बँधे हुए / चिपके हुए कर्म हैं। प्रश्न है जब आत्मा अपने सुख-दुःख की कर्ता स्वयं है और सब में मूलतः वह समान है तब संसार में इतना दुःख और वैषम्य क्यों है ? क्या मनोवैज्ञानिक रूप से यह सम्भव है कि व्यक्ति को पूर्ण स्वतन्त्रता हो और फिर भी वह अपने सुख के लिए दुःख के कांटे बोए ? इस प्रश्न का उत्तर जैन दार्शनिकों ने कर्म सिद्धान्त की प्रक्रिया में खोजा है । उनका मानना है कि जीव अपने सुख-दुःख का विधाता और भोक्ता स्वयं होते हुए भी अनादि काल से कर्म के बन्धनों में जकड़ा हुआ है। यही कारण है कि सिद्धान्ततः वह पूर्ण स्वतंत्र और आनंदमय होते हुए भी व्यवहार में स्वतंत्र और आनंदमय नहीं है। जीव जो क्रिया करता है उसका नाम कर्म है। दूसरे शब्दों में जिस पर क्रिया का प्रभाव पड़े वह कर्म है । 'कर्म' शब्द का लोक-व्यवहार और शास्त्र में विभिन्न अर्थों में प्रयोग हुआ है । जन साधारण अपने-अपने काम-धन्धे, व्यवसाय, कर्तव्य आदि के अर्थ में कर्म शब्द का प्रयोग करते हैं। पर जैन-दर्शन में 'कर्म' शब्द का विशेष अर्थ में प्रयोग किया गया है। उसके अनुसार संसारी जीव जब रागद्वेषयुक्त मन, वचन, काया से जो भी किया करता है उससे उसके आत्मप्रदेश में एक विशेष प्रकार का स्पन्दन होता है, उत्तेजन होता है । उससे वह सूक्ष्म पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण करता है और उनके द्वारा नाना प्रकार के प्राभ्यन्तर संस्कारों को जन्म देता है । ये पुद्गल परमाणु भौतिक और जड़ होते हुए भी जीव की राग-द्वेषात्मक मानसिक, वाचिक, शारीरिक क्रियाओं के द्वारा आकृष्ट होकर आत्मा के साथ अग्नि-लोह-पिण्ड की भाँति परस्पर एकमेक हो जाते हैं और आत्मा की अनन्त शक्ति को आच्छादित कर लेते हैं, जिससे उसका तेज हतप्रभ और मन्द हो जाता है। जब विशिष्ट साधना के द्वारा इन कर्मपुद्गलों को नष्ट कर दिया जाता है तब आत्मा पूर्ण स्वतंत्र और आनंदमय बन जाती है । जब तक इन कर्मों का क्षय नहीं होता, आत्मा भव-भ्रमण करती रहती है। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि कृत कर्मों का फल भोगे बिना आत्मा की मुक्ति नहीं हो सकती। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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