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________________ कर्म का स्वरूप ] [ ६३ "अविध राग द्वेषवत: प्रवर्तकाद् धर्मात प्रकृष्टात स्वल्पा धर्म-सहितात् ब्रह्म ेन्द्र प्रजापतिपितृमनुष्यलोकेषु आशयानुरूपैरिष्ट शरीरेन्द्रियविषयसुखादिfभयोगो भवति । तथा प्रकृष्टाद् धर्माद् स्वल्पधर्मसहितात प्रेततिर्यग्योनिस्थानेषु अलिष्ट शरीरेन्द्रियविषयदुःखादिभियोगो भवति । एवं प्रवृत्तिलक्षपाद् धर्माद् धर्मसहिताद देवूमनुष्य तिर्यङ्गः नारकेषु पुनः पुनः संसारबन्धो भवति ।" (पृ. २८०-२८१) अर्थात् राग और द्वेष से युक्त अज्ञानी जीव कुछ अधर्मसहित किन्तु प्रकृष्ट धर्ममूलक कार्यों के करने से ब्रह्मलोक, इन्द्रलोक, प्रजनपतिलोक, पितृलोक और मनुष्यलोक में अपने आशय - कर्माशय के अनुरूप इष्ट शरीर, इन्द्रियविषय और सुखादिक को प्राप्त करता है तथा कुछ धर्मसहित किन्तु प्रकृष्ट अधर्ममूलक कामों के करने से प्रेतयोनि, तिर्यग्योनि वगैरह स्थानों में, अनिष्ट शरीर, इन्द्रिय विषय और दुःखादिक को प्राप्त करता है । इस प्रकार अधर्म सहित प्रवृत्तिमूलक धर्म से देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नारकों में जन्म लेकर बारम्बार संसारबन्ध को करता है । न्याय मंजरीकार ने भी इसी मत को व्यक्त करते हुए लिखा है- "यो ह्यम् देवमनुष्यतिर्यरभूमिषुशरीरसर्गः, यश्च प्रतिविषयं बुद्धिसर्गः, यश्चात्मना सह मनसः संसर्ग, स सर्वः प्रवृत्त रेव परिणामविभवः । प्रवृत्तश्च सर्वस्या: क्रियात्वात् क्षणिकत्वेअपि तदुपहितो धर्माधर्मशब्दवाच्य आत्मसंस्कार: कर्मफलोपभोगपर्यन्तस्थितिरस्त्येव न च जगति तथाविधं किमपि कार्यमस्त्विस्तु यन्न धर्माधर्माभ्यामाङ्क्षिप्त सम्भवम । " (पृ. ७० ) अर्थात् — देव, मनुष्य और तिर्यग्योनि में जो शरीर की उत्पत्ति देखी जाती है, प्रत्येक वस्तु को जानने के लिये जो ज्ञान की उत्पत्ति होती है, और आत्मा का मन के साथ जो सम्बन्ध होता है, वह सब प्रवृत्ति का ही परिणाम है । सभी प्रवृत्तियाँ क्रियारूप होने के कारण यद्यपि क्षणिक हैं, किन्तु उनसे होने वाला आत्मसंस्कार, जिसे धर्म या अधर्म शब्द से कहा जाता है, कर्म फल के भोगने पर्यन्त स्थित रहता है । संसार में ऐसा कोई कार्य नहीं है जो धर्म या अधर्म से व्याप्त न हो । इस प्रकार विभिन्न दार्शनिकों के उक्त मन्तव्यों से यह स्पष्ट है कि कर्म नाम क्रिया या प्रवृत्ति का है और उस प्रवृत्ति के मूल में राग और द्वेष रहते हैं तथा यद्यपि प्रवृत्ति, क्रिया या कर्म क्षणिक होता है तथापि उसका संस्कार फलकाल तक स्थायी रहता है । संस्कार से प्रवृत्ति और प्रवृत्ति से संस्कार की परम्परा अनादिकाल से चली आती है । इसी का नाम संसार है । किन्तु जैन दर्शन के मतानुसार कर्म का स्वरूप किसी अंश में उक्त मतों से विभिन्न है Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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