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________________ ६२ ] [ कर्म सिद्धान्त होने से बुढ़ापा, मरना, शोक, रोना-पीटना, दुःख, बेचैनी और परेशानी होती है। इस प्रकार इन दुःखों के सिलसिले का आरम्भ कहां से हुआ इसका पता नहीं।' योग दर्शन में लिखा है वृत्तयः पच्चतथ्यः क्लिष्टाअक्लिष्टाः ।।१-५।। क्लेशहेतुकाः कर्माशयप्रचयक्षेत्रीभूताः क्लिष्टाः ।व्या० भा०। प्रतिपत्ताअर्थमवसाय तत्र सक्तो द्विष्ठो वा कर्माशयमाचिनोतीति भवन्ति धर्माधर्मप्रसवभूमयो वृत्तयः क्लिष्टा इति । तत्त्व वै० । तथा जातीयका-क्लिष्टजातीया अक्लिष्टजातीया वा संस्कारा वृत्तिभिरेव क्रियन्ते । वृत्तभिः संस्काराः संस्कारेभ्यश्च वृत्तय इत्येवं वृत्तिसंस्कारचक्र निरन्तरमावर्तते ।भास्वति। ____ अर्थात् पांच प्रकार की वृत्तियां होती हैं, जो क्लिष्ट भी होती हैं और अक्लिष्ट भी होती हैं । जिन वृत्तियों का कारण क्लेश होता है और जो कर्माशय के संचय के लिये आधारभूत होती हैं उन्हें क्लिष्ट कहते हैं । अर्थात् ज्ञाता अर्थ को जानकर उससे राग या द्वेष करता है और ऐसा करने से कर्माशय का संचय करता है । इस प्रकार धर्म ओर अधर्म को उत्पन्न करने वाली वृत्तियां क्लिष्ट कही जाती हैं। क्लिष्ट जातीय अथवा अक्लिष्टजातीय संस्कार वृत्तियों के ही द्वारा होते हैं और वृत्तियां संस्कार से होती हैं। इस प्रकार वृत्ति और संस्कार का चक्र सर्वदा चलता रहता है । सांख्यकारिका' में लिखा है सम्यग्ज्ञान अधिगमाद् धर्मादीनामकारणप्राप्तो । तिष्ठति संस्कारवशात् चक्रभ्रमवद् धृतशरीरः ॥६७॥ संस्कारो नाम धर्माधर्मो निमित्तं कृत्वा शरीरोत्पत्तिर्भवति । ................"संस्कारवशात्-कर्मवशादित्यर्थः । माठ-व० । अर्थात धर्म और अधर्म को संस्कार कहते हैं। उसी के निमित्त से शरीर बनता है । सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होने पर धर्मादिक पुनर्जन्म करने में समर्थ नहीं रहते । फिर भी संस्कार की वजह से पुरुष संसार में ठहरा रहता है । जैसे, कुलाल के दण्ड का सम्बन्ध दूर हो जाने पर भी संस्कार के वश से चाक घूमता रहता है । क्योंकि बिना फल दिये संस्कार का क्षय नहीं होता। अहिंसा, सत्य, अस्तेय वगैरह को धर्म और हिंसा, असत्य, स्तेय वगैरह को अधर्म के साधन बतलाकर 'प्रशस्तपाद' में लिखा है १. मिलिन्द प्रश्न पृष्ठ ६२ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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