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________________ कर्म-विमर्श ] [ ५७ के संस्कार को मलीन - कलुषित करता है । उससे उनका फलायोग होता है । अमृत और विष पथ्य और अपथ्य में कुछ भी ज्ञान नहीं होता तथापि श्रात्मा का संयोग पाकर वे अपनी प्रकृत्यानुसार प्रभाव डालते हैं । जिस प्रकार गरिणत करने वाली मशीन जड़ होने पर भी अंक गणना में भूल नहीं करती वैसे ही कर्म जड़ होने पर भी फल देने में भूल नहीं करते । अतः ईश्वर को नियंता मानने की आवश्यकता नहीं । कर्म के विपरीत वह कुछ भी देने में समर्थ नहीं होगा । एक तरफ ईश्वर को सर्व शक्तिमान मानना दूसरी तरफ अंश मात्र भी परिवर्तन का अधिकार नहीं देना ईश्वर का उपहास है । इससे तो अच्छा है कि कर्म को ही फल प्रदाता मान लिया जाये । कर्म बन्ध और उसके भेद : माकन्दी ने अपनी जिज्ञासा के शमनार्थ प्रश्न किया कि भगवन् ! भावबन्ध के भेद कितने हैं ? भगवान् - माकन्दी पुत्र, भाव बन्ध दो प्रकार का है मूल प्रकृति बन्ध और उत्तर प्रकृति बन्ध । बन्ध आत्मा और कर्म के सम्बन्ध की पहली अवस्था है । वह चतुरूप है । यथा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश । बन्ध का अर्थ है आत्मा और कर्म का संयोग । और कम का निर्मापरणा व्यवस्थाकरण - बन्धनम निर्माणम् । ( स्था० ८ / ५६६) ग्रहण के समय कर्म पुद्गल प्रविभक्त होते हैं । ग्रहण के पश्चात् वे श्रात्म प्रदेशों के साथ एकीभूत हो जाते हैं । इसके पश्चात् कर्म परमाणु कार्यभेद के अनुसार आठ वर्गों में बंट जाते हैं- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय | कर्म दो प्रकार के हैं घाती कर्म और अघाती कर्म । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार घनघाती, ग्रात्म शक्ति के घातक, आवरक, विकारक और प्रतिरोधक हैं । इनके दूर हो जाने पर ही आत्म गुण प्रकट होकर निज स्वरूप में आत्मा आ जाती । शेष चार अघाती कर्म हैं । ये 'मुख्यतः श्रात्म गुणों का घात नहीं करते हैं । ये शुभ-अशुभ पौद्गलिक दशा के निमित्त हैं । ये अघाती कर्म बाह्यार्थापेक्षी हैं । भौतिक तत्त्वों की इनसे प्राप्ति होती हैं । जीवन का अर्थ है - आत्मा और शरीर का सहभाव । शुभ-अशुभ शरीर निर्माणकारी कर्म वर्गरणाएं नाम कर्म । शुभ-अशुभ जीवन को बनाये रखने वाली कर्म वर्गणाएं आयुष्य कर्म । व्यक्ति को सम्माननीय - असम्माननीय बनाने वाली कर्म वर्गणाएं गोत्र कर्म और सुख-दुःखानुभूतिकारक कर्म वर्गणाएं वेदनीय कर्म कहलाती हैं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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