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________________ ५६ ] [ कर्म सिद्धान्त स्नेहासिक्त शरीरस्य रेणुनाश्लेष्यते यथा गात्रम् । राग द्वेषाक्लिन्नस्य कर्म बन्धो भवत्येवम् ।। -आवश्यक टीका जिस मानव के शरीर पर तेल का लेपन किया हुआ है, उसका शरीर उड़ने वाली धूल से लिप्त हो जाता है। उसी भाँति राग-द्वेष के भाव से आक्लिन्न हुए मानव पर कर्म रज का बंध होता है। राग-द्वेष की तीव्रता से ही ज्ञान में विपरीतता आती है । जैन दर्शन की भाँति बौद्ध दर्शन ने भी कर्म बंध का कारण मिथ्या ज्ञान अथवा मोह को स्वीकार किया है। सम्बन्ध का अनादित्व : ___ जैन दर्शन में प्रात्मा निर्मल तत्त्व हैं । वैदिक दर्शन में ब्रह्म तत्त्व विशुद्ध है। कर्म के साहचर्य से वह मलिन होता है । पर इन दोनों का संयोग कब हुआ? इस प्रश्न का प्रत्यत्तर अनादित्व की भाषा से दिया है। चकि आदि मानने पर अनेक विसंगतियाँ उपस्थित हो जाती हैं जैसे कि सम्बन्ध यदि सादि है तो पहले कौन ? आत्मा या कर्म या दोनों का सम्बन्ध है ? प्रथम प्रकारेण पवित्र आत्मा कर्म बंध नहीं करती । द्वितीय भंग में कर्म कर्ता के अभाव में बनते नहीं। तृतीय भंग में युगपत् जन्म लेने वाले कोई भी पदार्थ परस्पर कर्ता, कर्म नहीं बन सकते । अतः कर्म और आत्मा का अनादि सम्बन्ध का सिद्धांत अकाट्य है। . इस सम्बन्ध में एक सुन्दर उदाहरण प्रसिद्ध विद्वान् हरिभद्र सूरि का है। वर्तमान समय का अनुभव होता है। फिर भी वर्तमान अनादि है क्योंकि अतीत अनन्त है। और कोई भी अतीत वर्तमान के बिना नहीं बना। फिर भी वर्तमान का प्रवाह कब से चला, इस प्रश्न के प्रत्युत्तर में अनादित्व ही अभिव्यक्त होता है। इसी भाँति प्रात्मा और कर्म का सम्बन्ध वैयक्तिक दृष्टया सादि होते हुए भी प्रवाह की दृष्टि से अनादि है । अाकाश और आत्मा का सम्बन्ध अनादि अनन्त है । पर कर्म और आत्मा का सम्बन्ध स्वर्ण मृत्तिका की भाँति अनादि सान्त है। अग्नि प्रयोग से स्वर्ण-मिट्टी को पृथक्-पृथक किया जाता है तो शुभ अनुष्ठानों से कर्म के अनादि सम्बन्ध को खण्डित कर आत्मा को शुद्ध किया जा सकता है। . जैन दर्शन की मान्यतानुसार जीव जैसा कर्म करता है वैसा ही उसे फल मिलता है । 'अप्पा कत्ता विकत्ताय दुहाणय सुहागय ।' कर्म फल का नियंता ईश्वर है। यह जैन दर्शन स्वीकार नहीं करता। जैन दर्शन यह स्वीकार करता है कि कर्म परमाणुओं में जीवात्मा के सम्बन्ध से एक विशिष्ट परिणाम उत्पन्न होता है जिससे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भवगति, स्थिति प्रभृति उदय के अनुकूल सामग्री से विपाक प्रदर्शन में समर्थ होकर आत्मा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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