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________________ ३८ ] [ कर्म सिद्धान्त प्रकार दर्शनावरण कर्म भी पदार्थों के सामान्य धर्म के बोध को रोकता है, तात्पर्य यह है कि इसके प्रभाव से वस्तु-तत्त्व के सामान्य धर्म का बोध नहीं हो सकता। दर्शनावरणीय कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ निम्नलिखित हैं१-चक्षुदर्शनावरण ५-निद्रा २-अचक्षुदर्शनावरण ६-निद्रानिद्रा ३-अवधिदर्शनावरण ७-प्रचला ४-केवलदर्शनावरण ८-प्रचलाप्रचला 8-स्त्यानद्धि दर्शनावरणीय कर्म भी देशघाती और सर्वघाती के भेद से दो प्रकार का है। चक्षु, अचक्षु और अवधिदर्शनावरण ये तीन प्रकृतियां देशघाती हैं और इनके अतिरिक्त छह प्रकृतियाँ सर्वघाती हैं । सर्वघाती प्रकृतियों में केवल दर्शनावरण प्रमुख हैं । दर्शनावरण का पूर्णतः क्षय होने पर जीव की अनन्त दर्शन-शक्ति प्रगट हो जाती है, जब उसका क्षयोपशम होता है तब चक्षदर्शन, अचक्षदर्शन और अवधिदर्शन का प्रगटन होता है। इस कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटि सागरोपम की और न्यूनतम स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है।' ३. वेदनीय कर्म : वेदनीय कर्म आत्मा के अव्याबाध गुण को आवृत्त करता है । इसके उदय से प्रात्मा को सूख-दुःख की अनुभति होती है, यह दो प्रकार का है४-सातावेदनीय और असाता वेदनीय । सातावेदनीय कर्म के प्रभाव से जीव को भौतिक सुखों की उपलब्धि होती है और असातावेदनीय कर्म के उदय होने पर दुःख १. (क) प्रथम कर्मग्रन्थ-६ (ख) गोम्मटसार कर्मकाण्ड-२१ (ग) स्थानांग सूत्र २/४/१०५ ॥ टीका २. (क) समवायाङ्ग सूत्र-६ (ख) स्थानांग सूत्र ८/३/६६८ (ग) प्रज्ञापना सूत्र-२३/१ ॥ (घ) उत्तराध्ययन सूत्र ३३/५-८ ३. (क) उत्तराध्ययन सूत्र-३३/१६-२० (ख) प्रज्ञापना सूत्र पद-२६ उ० २ सूत्र-२६३ (ग) तत्त्वार्थसूत्र-८/१५। (घ) पंचम कर्मग्रन्थ गाथा-२६ ४. (क) स्थानांग सूत्र २/१०५ ।। (ख) वेयणीयं पि दुविहं सायमसायं च प्राहियं ॥ उत्तराध्ययन सूत्र-३३/७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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