SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 362
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य श्री गजेन्द्र अमृत महोत्सव साधना समारोह दिनांक ६ जनवरी, १९८४, पौष शुक्ला चतुर्दशी सं. २०४१ प्रिय बन्धुवर ! सादर जयजिनेन्द्र ! परम गौरव एवं अपार हर्ष का विषय है कि विश्ववंद्य श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के शासन के सजग प्रबल प्रहरी, जैन जगत् के दैदीप्यमान नक्षत्र, रत्नवंशनायक धर्मगुरु, धर्माचार्य, सामायिक-स्वाध्याय के सन्देशवाहक, प्रातःस्मरणीय, अखण्ड बालब्रह्मचारी, चारित्र चूड़ामणि, विद्वद्रत्न, इतिहास-मार्तण्ड, परम पूज्य आचार्य परम-श्रद्धेय श्री १००८ श्री हस्तीमलजी महाराज साहब का ७५वां पुनीत पावन जन्म दिवस आगामी पौष शुक्ला चतुर्दशी तदनुसार दिनांक ६ जनवरी, १९८५ को समुपस्थित हो रहा है। परम पूज्य आचार्य प्रवर का समग्र जीवन साधना सम्पूरित रहा है। आचार्य श्री ने ६४ वर्ष के इस सुदीर्घ साधना काल में जहाँ एक ओर उत्तर से दक्षिण एवं पूर्व से पश्चिम तक सहस्रों मील का पादविहार कर जिनवाणी की पावन गंगा को भारत भूमि के कोने-कोने में प्रवाहित किया है, वहीं स्वाध्याय एवं सामायिक के मंगलमय दिव्य घोष से नगर, ग्राम एवं घर-घर में भगवान् महावीर का विश्वकल्याणकारी सन्देश पहुँचाया है। आपने अपने सुदीर्घ आचार्य-काल में न केवल अनेकों मुमुक्षु भद्र-भव्य भाई-बहिनों को अध्यात्म की ओर प्रेरित कर उन्हें पंच महाव्रतों की भागवती दीक्षा ही प्रदान की है, अपितु हजारों नर-नारियों को सप्त कुव्यसनों का त्याग करवाकर, उन्हें सामायिक व स्वाध्याय की प्रेरणा देकर, समाज के नैतिक एवं धार्मिक धरातल को समुन्नत करने की दिशा में अथक परिश्रम किया है। आप द्वारा प्रेरित सैकड़ों स्वाध्यायी बन्धु प्रतिवर्ष सैकड़ों क्षेत्रों में धर्म-साधना पूर्वक पर्युषण-पर्वाराधन करवा रहे हैं। आपकी सतत अहर्निश अप्रमत्त दिनचर्या, अलौकिक ध्यान-साधना, नियमित मौन-साधना, सम्प्रदायातीत धर्म प्रेरणा, साधक-जीवन में दृढ़ अनुशासन, प्रतिपल जिन शासन हित चिन्तन आपकी मौलिक विशेषताएं हैं। आपके जीवन में ज्ञान एवं क्रिया का सुन्दर संगम सहज ही स्वतः दृष्टिगत होता है । आपकी प्रसन्नचित सौम्य शान्त मुख मुद्रा दर्शनार्थी भक्तगणों को हठात् प्रथम दर्शन में ही सदा सर्वदा के लिये अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। स्व सम्प्रदाय में रहते हुए भी आपका लक्ष्य सदैव जिन शासन सेवा, संगठन, एकता एवं श्रमणाचार की विशुद्धता का रहा है । आप द्वारा प्रेरित संस्थाएँ भी इसी पवित्र लक्ष्य के अनुरूप समग्र जैन समाज व मानव मात्र की सेवा हेतु समर्पित हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy