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[ कर्म सिद्धान्त
प्रत्येक जीव के सुखःदुःख तथा तत्सम्बन्धी नानाविध स्थितियां क्या कर्म की विविधता-विचित्रता पर अवलम्बित हैं, अकर्म पर तो नहीं हैं ? गौतम ! समस्त संसारी जीवों के कर्मबीज भिन्न-भिन्न होने के कारण ही उनकी स्थिति और दशा में अन्तर है, विभिन्नता है, अकर्म के कारण नहीं।
आचार्य देवेन्द्र सूरि इसे और अधिक स्पष्टता के साथ कहते हैं :
'क्ष्माभृद्रंकयोर्मनीषिजडयोः सद्प-निरूपयोः, श्रीमद् - दुर्गतयोर्बलाबलवतार्नीरोगरोगातयोः । सौभाग्याऽसुभगत्वसंगमजुषोस्तुल्येऽति नृत्वेऽन्तरं,
यत्तत्कर्मनिबन्धनं तदपि नो जीव विना युक्तिमत् ।।' राजा-रंक, बुद्धिमान-मूर्ख, सुरूप-कुरूप, धनिक-निर्धन, सबल-निर्बल, रोगी-निरोगी, भाग्यशाली-अभागा, इन सब में मनुष्यत्व समान होने पर भी जो अन्तर दिखाई देता है, वह सब कर्मकृत है और वह कर्म जीव (आत्मा) के बिना हो नहीं सकता। कर्म के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए इससे बढ़कर और क्या प्रमाण हो सकता है ?
कई लोग, जिनमें मुख्य रूप से नास्तिक, चार्वाक आदि हैं, कहते हैंकर्म सिद्धान्त को मानने की क्या आवश्यकता है, इसी लोक में पांच भूतों के संयोग से अच्छा-बुरा जो कुछ मिलता है, मिल जाता है, इससे आगे कुछ नहीं होता, शरीर जलकर यहीं खाक हो जाता है, फिर कहीं पाना है, न जाना है । परन्तु चार्वाक के इस कथन का खण्डन इस बात से हो जाता है । एक सरीखी मिट्टी और एक ही कुम्हार द्वारा बनाये जाने वाले घड़ों में पंचभूत समान होते हुए भी अन्तर क्यों दिखाई देता है ? इसी प्रकार एक ही माता-पिता के दो, एक साथ उत्पन्न हुए बालकों में साधन और पंचभूत एक से होने पर भी उनकी बुद्धि, शक्ति आदि में अन्तर पाया जाता है, इस अन्तर का कारण कर्म कोपूर्वकृत कर्म को माने बिना कोई चारा नहीं। यही बात जिन भद्र गणि क्षमाश्रमण कर रहे हैं
जो तुल्लसाहणाणं फले विसेसो ण सो विणा हेउं ।
कज्जतणओ गोयमा ! घडोव्व हेऊ य सो कम्म ।। एक सरीखे साधन होने पर भी फल (परिणाम) में जो तारतम्य या अन्तर मानव जगत में दिखाई दे रहा है, बिना कारण के नहीं हो सकता। जैसे
१. कर्मग्रंथ, प्रथम टीका । २. विशेषावश्यक भाष्य ।
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