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कर्म का अस्तित्व ]
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इस दृश्यमान विश्व में दो प्रकार के पदार्थ दिखाई देते हैं-चेतन (जीव) और अचेतन (जड़ या अजीव)। दोनों के गुण-धर्म, अस्तित्व और क्रियाएं पृथक्-पृथक् हैं। तब फिर इनमें विकार, विभिन्नता और अशुद्धता दिखने का क्या कारण है ? कारण है-विजातीय पदार्थ का संयोग ।
प्रत्येक पदार्थ के समान गुण-धर्म, निजी स्वभाव तथा उससे मेल खाने वाली क्रिया से सम्बन्धित पदार्थ सजातीय कहलाता है। तथा उस पदार्थ के स्वभाव, गुण धर्म तथा क्रिया से विपरीत स्वभाव, गुणधर्म या क्रिया वाला पदार्थ कहलाता है-विजातीय । सजातीय पदार्थों के संयोग से विकार पैदा नहीं होता, विकार पैदा होता है-सजातीय के साथ विजातीय पदार्थों के संयोग के कारण । जीव के लिए अजीव विजातीय पदार्थ है। जब जीव के साथ अजीव का संयोग होता है तो जीव (आत्मा) में विकार उत्पन्न होता है। निष्कर्ष यह है-कर्म नाम का यह अजीव ही एक विजातीय पदार्थ है, जो आत्माओं की शुद्धता को भंग करके उनकी स्थिति में भेद डालता है, विरूपता या विभिन्नता पैदा करता है । जैसे सौ टंची सोना शुद्ध है, सभी सोना स्वर्ण दृष्टि से समान है, लेकिन उसमें विजातीय तत्त्व 'खोट' मिल जाने पर विविधता या विरूपता पैदा हो जाती है। इसी प्रकार शुद्ध प्रात्मानों के साथ कर्म नामक विजातीय अजीव पुद्गल मिल जाने से आत्माओं में विरूपता या विभिन्नता पैदा हो जाती है । विश्व की आत्माओं (जीवों) में अशुद्धता, विभिन्नता या विषमतामों का भी एक बीज है-विजातीय कारण है जिसका स्वभाव आत्मा से अलग है, वह बीज (कारण) है-कर्म । इसीलिए आचारांग सूत्र में कहा गया है
'कम्मुणा उवाही जायह' ।'
कर्म बीज के कारण ही जीवों की नाना उपाधियां हैं, विविध अवस्थाएं हैं।
आत्मा की विभिन्न सांसारिक परिणतियों-अवस्थाओं के लिए सभी आत्मवादी दार्शनिकों ने कर्म को ही कारण माना है ।
भगवती सूत्र में भगवान महावीर ने इस प्रश्न का इसी प्रकार का उत्तर दिया है :
'कम्मोणं भंते ! जीवे, नो-अकम्मो विमत्तिभावं परिणमई ? कम्मोणं, जओ णो अकम्म ओ विमत्तिभावं परिणमई ।।
१. आचारांग सूत्र १।३।१ । २. भगवती सूत्र १२।५।
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