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कर्म और पुरुषार्थ की जैन कथाएँ ]
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इधर सेठानी के घर में सुकुमाल के निष्क्रमण का समाचार मिलते ही सब परिजन नगर के बाहर दौड़ । जब तक वे मुनि सुकुमाल के समीप पहुँचे तब तक उस सियारिनी द्वारा उनका भौतिक शरीर खाया जा चुका था । इस दृश्य को देखकर सारे लोग स्तब्ध रह गये । तब सुकुमाल के दीक्षा गुरु सूर्यमित्र ने उनकी शंका का समाधान करते हुए उन्हें सुकुमाल और सियारिनी के पूर्वजन्म की कथा इस प्रकार सुनायी ।
"इसी भरतक्षेत्र में कौशाम्बी नगरी है । वहाँ प्रतिबल राजा अपनी मदनावली रानी के साथ राज्य करता था । उसके यहाँ सोमशर्मा नामक मन्त्री था । उसके काश्यपी नामक पत्नी थी। उनके दो पुत्र थे - श्रग्निभूति और वायुभूति । पिता की मृत्यु के बाद माता काश्यपी ने अपने दोनों पुत्रों को पढ़ने के लिए उनके मामा सूर्यमित्र के पास उन्हें राजगृही भेजा । सूर्यमित्र ने मामाभानजे के सम्बन्ध को छिपाकर रखा और उन्हें अच्छी शिक्षा दी । किन्तु जब दोनों पुत्रों को इस सम्बन्ध की जानकारी मिली तो अग्निभूति ने सोचा कि मामा
हमारे हित के लिए ऐसा किया । अन्यथा हम पढ़ न पाते । किन्तु वायुभूति ने इसे अपना अपमान समझा और वह मामा सूर्यमित्र को अपना शत्रु मानने
लगा ।
एक बार सूर्यमित्र मुनि के रूप में कौशाम्बी में आये । तब अग्निभूति ने उनका बहुत सत्कार किया, किन्तु वायुभूति ने उनका अपमान किया । इससे दुःखी होकर अग्निभूति को भी संसार की प्रसारता का ज्ञान हो गया । उसने भी सूर्यमित्र के पास मुनिदीक्षा ले ली । जब यह बात अग्निभूति की पत्नी सोमदत्ता को ज्ञात हुई तो वह बहुत चिन्तित हुई । उसने अपने देवर वायुभूति से बड़े भ्राता प्रग्निभूति को घर लौटा लाने का अनुरोध किया । इससे वायुभूति और क्रोधित हो गया । उसने अपनी भौजाई सोमदत्ता के सिर पर अपने पैरों से प्रहार कर दिया । इससे सोमदत्ता बहुत दु:खी हुई । उसने कहा कि मैं अभी अबला हूँ । इसलिए तुमने मुझे लातों से मारा है । किन्तु मुझे जब अवसर मिलेगा मैं तुम्हारे इन्हीं पैरों को नोंच-नोंचकर खाऊँगी । इस निदान के उपरान्त सोमदत्ता मृत्यु को प्राप्त हो गई । वहाँ से अनेक जन्मों में भटकती हुई आज वह यहाँ इस सियारिनी के रूप में उपस्थित है ।
उधर वायुभूति का जीव भी मरकर नरक में गया । वहाँ से निकलकर पशुयोनि में भटका । जन्मान्ध चाण्डाली हुआ। फिर मुनि - उपदेश पाकर ब्राह्मण पुत्री नागश्री के रूप में पैदा हुआ । वहाँ उसने व्रतों का पालन कर इस नगर में जया सेठानी के यहाँ सुकुमाल के रूप में जन्म लिया । शुभ कर्मों के उदय से सुकुमाल ने मुनि दीक्षा ली । किन्तु अशुभ कर्मों के उदय से उन्हें इस सियारिनी द्वारा दिया गया यह उपसर्ग सहना पड़ा है ।"
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