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कर्म और पुरुषार्थ की जैन कथाएँ ]
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सुनकर उन दोनों बालकों को बचपन में ही संसार का स्वरूप समझ में आ गया । अतः वे बाल्यावस्था में ही साधु एवं साध्वी बन गये ।
'हे राजा मारिदत्त ! हम दोनों साधु-साध्वी यशोमति के वही पुत्र-पुत्री हैं । हमने आटे के मुर्गे की बलि चढ़ाकर जो संसार के दुःख उठाये हैं, उन्हें तुम्हारे सामने कह दिया है । अब तुम्हारी इच्छा कि तुम हमारे साथ इन निरपराधी मूक पशुओं की बलि दो या नहीं।' राजा मारिदत्त यह वृत्तान्त सुनकर मुनि युगल के चरणों में गिर पड़ा और उसने निवेदन किया कि हमारे द्वारा किए गए अपमान को क्षमा करें भगवन् ! हमें भी अपने उस कल्याण मित्र गुरु के पास ले चलें।'
[२] सियारिनी का बदला
डॉ० प्रेम सुमन जैन जम्बू द्वीप के भरतक्षेत्र में उज्जयिनी नगरी है। वहाँ सुभद्र सेठ अपनी पत्नी जया के साथ रहता था। उनके धन-धान्य एवं अन्य सुखों की कमी नहीं थी। किन्तु कोई संतान न होने से वे दोनों दुःखी थे । कुछ समय बाद उनके एक पुत्र हुआ, जो अत्यन्त सुकुमार था अतः उसका नाम सुकुमाल रख दिया गया। किन्तु कर्मों का कुछ ऐसा संयोग कि पुत्र-दर्शन के बाद ही सेठ ने दीक्षा ले ली। अतः जया सेठानी बहुत दु:खी हुई। उसने एक ज्ञानी मुनि से अपने पुत्र के भविष्य के सम्बन्ध में पूछा । मुनि ने कहा-'सुकुमाल को संसार के सब सुख मिलेंगे । किन्तु जब कभी भी किसी मुनि के उपदेश इसके कानों में पड़ेंगे तब यह मुनि बन जायेगा।' यह सुनकर जया सेठानी ने अपने महल के चारों ओर ऐसी व्यवस्था कर दी कि दूर-दूर तक किसी मुनि का आगमन न हो और न ही उनके उपदेश सुनाई पड़े।
समय आने पर जया सेठानी ने सुकुमाल का ३२ कुमारियों से विवाह कर दिया। उनके सबके अलग-अलग महल बनवा दिये। वहाँ सुख-सुविधाओं के सभी साधन उपलब्ध करा दिये ताकि सुकुमाल को कभी भी उन महलों की परिधि से बाहर न आना पड़े।
एक बार जया सेठानी की समृद्धि और सुकुमाल की सुकुमारता की प्रसिद्धि सुनकर उस नगर का राजा सेठानी के घर आया । जया सेठानी ने राजा का पूरा सत्कार किया एवं उसे अपने पुत्र से मिलाया। उसके साथ भोजन
१. दशवीं शताब्दी के यशस्तिलकचम्पू की प्रमुख कथा का संक्षिप्त रूपान्तर ।
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