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कर्म और पुरुषार्थ की जैन कथाएँ ]
[ ३३७ निराश हो चुका था। तब धनदत्त उसे समझाता है कि पुरुषार्थ-हीन होने से तो लक्ष्मी विष्णु को भी छोड़ देती है और जो पुरुषार्थी होता है उसी पर वह दृष्टिपात करती है । अतः तुम पुनः साहस करो। व्यक्ति के लगातार प्रयत्न करने पर ही भाग्य बदला जा सकता है ।
प्राकृत के अन्य कथा-ग्रंथों में भी इस प्रकार की पुरुषार्थ सम्बन्धी कथाएँ देखी जा सकती हैं। श्रीपाल-कथा कर्म और पुरुषार्थ के अन्तर्द्वन्द्व का स्पष्ट उदाहरण है । मैना-सुन्दरी अपने पुरुषार्थ के बल पर अपने दरिद्र एवं कोढ़ी पति को स्वस्थ कर पुनः सम्पत्तिशाली बना देती है। प्राकृत के ग्रंथों में इस विषयक एक बहुत रोचक कथा प्राप्त है। राजा भोज के दरबार में एक भाग्यवादी एवं पुरुषार्थी व्यक्ति उपस्थित हुआ। भाग्यवादी ने कहा कि सब कुछ भाग्य से होता है, पुरुषार्थ व्यर्थ है । पुरुषार्थी ने कहा-प्रयत्न करने से ही सब कुछ प्राप्त होता है, भाग्य के भरोसे बैठे रहने से नहीं । राजा ने कालिदास नामक मंत्री को उनका विवाद निपटाने को कहा । कालिदास ने उन दोनों के हाथ बाँधकर उन्हें एक अंधेरे कमरे में बंद कर दिया और कहा कि आप लोग अपने-अपने सिद्धान्त को अपनाकर बाहर आ जाना। भाग्यवादी निष्क्रिय होकर कमरे के एक कोने में बैठा रहा जबकि पुरुषार्थी तीन दिन तक कमरे से निकलने का द्वार खोजता रहा । अंत में थककर वह एक स्थान पर गिर पड़ा । जहाँ उसके हाथ थे वहाँ चूहे का बिल था, अतः उसके हाथ का बंधन चूहे ने काट दिया। दूसरे दिन वह किसी प्रकार दरवाजा तोड़कर बाहर आ गया। बाद में वह भाग्यवादी को भी निकाल लाया और कहने लगा कि उद्यम के फल को जानकर यावत्-जीवन उसे नहीं छोड़ना चाहिए । पुरुषार्थ फलदायी होता है।
उज्जमस्स फलं नच्चा, विउसदुगनायगे ।
जावज्जीवं न छुड्डेज्जा, उज्जमंफलदायगं ॥ यहाँ इस विषय से सम्बन्धित पाँच प्रमुख कथाएँ दी जा रही हैं । उनसे कर्म एवं पुरुषार्थ के स्वरूप को समझने में मदद मिलती है।
__ [१] आटे का मुर्गा
- डॉ० प्रेम सुमन जैन यौधेय नामक जनपद की राजधानी राजपुर के चण्डमारी देवी के मन्दिर के सामने बलि देने के लिए छोटे-बड़े पशुओं के कई जोड़े एकत्र कर दिये गये हैं । एक मनुष्य-युगल की प्रतीक्षा है। राजा मारिदत्त के राज्य-कर्मचारियों ने
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