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[ कर्म सिद्धान्त __ जीवन के कण-कण और क्षण-क्षण के साथ कर्म-सूत्र अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है, "न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत" (गीता) अर्थात् कोई भी क्षणभर के लिए भी बिना कुछ कर्म किये नहीं रहता, “एगे आया" आत्मा अपने मूल-स्वभाव की दृष्टि से एक है। यह निश्चित-निश्चल विचार है कि आत्मा व परमात्मा, जीव तथा ब्रह्म के बीच अन्तर डालने वाला तत्त्व 'कर्म ही तो है। जीव-सृष्टि का समूचा चक्र 'कर्म' की धुरी पर ही घूम रहा है। कर्म-सम्पृक्त जीव ही आत्मा है, और कर्म-विमुक्त जीव ही ब्रह्म अथवा परमात्मा है। कर्मवाद का दिव्य सन्देश है कि तुम अपने जीवन के निर्माता और अपने भाग्य-विधाता स्वयं हो। संक्षेप में कर्म-सिद्धान्त आध्यात्मिक चिन्तन और विकास का प्रबल कारण होने के साथ लोक जीवन में समभाव का आलम्बन करने की सीख देता है। जैसा पुरुषार्थ होगा, वैसा ही भाग्य बनेगा। प्रत्येक प्रात्मा कर्म से मुक्त होकर सत्-चित्त-आनन्द स्वरूप को प्राप्त करने में समर्थ है।
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दूहा धरम रा
श्री सत्यनारायण गोयनका
सदा जुद्ध करती रवै, लेवै बैरया जीत । बरण वीर पुरुसारथी, या संता री रीत ॥१॥ यो हि संत रो जुद्ध है, यो हि पराक्रम घोर । काम क्रोध अर मोह सू, राखै मुखड़ो मोड़ ।।२।। राग द्वेष अभिमान रा, बैरि बड़ा बलवान । कुण जाणे कद सिर चढे, पीड़ित कर दे प्राण ।।३।। संत सदा जाग्रत रवै, करै न रंच प्रमाद ।। भव-भय-बंधन काट कर, चखै मुक्ति को स्वाद ।।४॥ अन्तरमनः रण खेत मंह, बैरी भेळा होय । एक एक नै कतल कर, संत विजेता होय ।।५।। सतत जूझतो ही रवै, संत देह परयन्त । हनन करै अरिगण सकल, हुह जावै अरहन्त ।।६।।
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