SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 325
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२० ] [ कर्म सिद्धान्त 'अति-मानव' का सृष्टि-विकास तथा भूतल पर देवत्व के स्वयं आविर्भाव की उच्चतम परिकल्पना भारत के प्राचीन मनीषियों के सिद्धान्त से निराली है। मूलतः यह परिकल्पना डार्विन के विकासवाद की श्रेष्ठतम आध्यात्मिक परिणति है। विश्व में प्रत्येक कार्य की प्रतिक्रिया होती है, जिससे प्रकृति में कार्य शक्ति का सन्तुलन बना रहता है। उसी प्रकार कर्म एक क्रिया है और फल उसकी प्रतिक्रिया है, अतः जो भले या बुरे कर्म हमने किये हैं, उनका अच्छा या बुरा फल हमें भुगतना पड़ेगा। स्वामी विवेकानन्द ने कर्म-सिद्धान्त की वैज्ञानिक विवेचना की है। उनका कथन है कि जिस प्रकार प्रत्येक क्रिया जो हम करते हैं, हमारे पास पुनः वापिस आती है प्रतिक्रिया के रूप में; उसी प्रकार हमारे कार्य दूसरे मनुष्यों पर प्रतिक्रिया कर सकते हैं और अन्य मनुप्य के कार्य हमारे ऊपर प्रतिकिया कर सकते हैं। समस्त मस्तिष्क जो कि समान प्रवृत्ति रखते हैं, वे समान विचार से प्रभावित होते हैं । यद्यपि मस्तिष्क पर विचारों का यह प्रभाव दूरी आदि अन्य कारणों पर निर्भर करता है, तथापि मस्तिष्क सदैव अभिग्रहण के लिए खुला रहता है। जिस प्रकार दूरस्थ ब्रह्माण्डकीय पिण्डों से आने वाली प्रकाश तरंगें पृथ्वी तक आने में करोड़ों प्रकाश वर्ष ले लेती हैं, उसी प्रकार विचार-तरंगे भी कई सौ वर्षों तक संचरित होती हुई स्पन्दन करती रहती हैं जब तक कि वे किसी अभिग्राही तक न पहुँच जायें। इसलिये, बहुत कुछ सम्भव है कि हमारा वातावरण इस प्रकार के अच्छे तथा बुरे विचार-स्पन्दनों के कम्पनों से ओतप्रोत हो । जब तक कि कोई मस्तिष्क-अभिग्राही ग्रहण नहीं कर लेता है तब तक प्रत्येक मस्तिष्क से निकला हुआ विचार स्पन्दन करता रहता है और मस्तिष्क जो कि इनको ग्रहण करने के लिए खुला हुआ है, तत्काल इन विचार-स्पन्दनों में से कुछ को अभिगृहीत कर लेता है, अतः एक मनुष्य जब कोई बुरा कार्य करता है, तो उसका मस्तिष्क वातावरण में व्याप्त बुरी विचारधाराओं के स्पन्दनों को लगातार ग्रहण करता रहता है। यही कारण है कि बुरा कार्य करने वाला सतत बुरे कार्य ही करते रहने में तत्पर रहता है। यही बात अच्छे कार्य करने वाले पर भी लागू होती है । - हमारे सभी कार्य-अच्छे या बुरे-दोनों एक-दूसरे से जुड़े हुये हैं। उनके बीच हम कोई सीमा-रेखा नहीं खींच सकते। ऐसा कोई भी कार्य नहीं है जो एक ही समय में अच्छा तथा बुरा फल न रखता हो। . जो अच्छा कार्य करने वाला यह जानता है कि अच्छे कर्म में भी कुछ-न Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy