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कर्म सिद्धान्त और प्राधनिक विज्ञान
श्री अशोककुमार सक्सेना
विज्ञान को जड़ से चेतन करने का श्रेय प्राचार्य जगदीशचन्द्र बसु को है, जिन्होंने सर्वप्रथम यह प्रतिपादित किया कि सारी प्रकृति जीवन से स्पंदित होती है और तथाकथित 'अचेतन' तथा 'चेतन' में सीमारेखा व्यर्थ है। इसी प्रकार आइन्स्टाइन ने यह प्रक्रिया प्रारम्भ की जिसके आधार पर आधुनिक विज्ञान 'वस्तु' और 'विचार' को एक साथ देख सकने में समर्थ हो सका। जिस प्रकार पृथक्-पृथक् बिन्दुओं की कोई आकृति नहीं होती है परन्तु वे मिलकर कोई चित्र बना सकते हैं, उसी प्रकार पारमाणविक अवयव-प्रोटान, इलेक्ट्रान, न्यूट्रान, मेजान, क्वार्क-स्वयं 'वस्तु' न होकर केवल 'विचार' हैं, किन्तु वे मिलकर कोई वस्तु अर्थात् परमाणु बना सकते हैं। इसी प्रकार का एक विचार है 'कोटोन' जो प्रकाश का 'निर्माण' करता है और वैज्ञानिक पोली का विचार है'न्यूट्रिनो', जो कि ठोस द्रव्य से एकदम अनासक्त भाव से गुजर जाता है । इसके अतिरिक्त आइन्स्टाइन की सभी ब्रह्माण्डिकियाँ एक मान्यता के अधीन परिकल्पित की जाती हैं, जिसे ब्रह्माण्डिकीय सिद्धान्त कहते हैं, जिसका अर्थ है कि ब्रह्माण्ड सर्वत्र औसतन एक जैसा है अर्थात् द्रव्य और गति का वितरण पूरे ब्रह्माण्ड में औसतन वैसा ही है जैसा उसके किसी भाग-उदाहरणार्थ हमारी नीहारिका-आकाशगंगा-मन्दाकिनी में। इस मान्यता के पीछे 'गणितीय सौन्दर्यबोध' के अतिरिक्त और कोई आधार नहीं है और इस प्रकार आइन्स्टाइन के सूत्रों के आधार पर विभिन्न ब्रह्माण्डिकियाँ वैसे ही प्रस्तुत की जाने लगी जैसे कर्म-सिद्धान्त के आधार पर जैन, बौद्ध, सांख्य आदि दर्शन ।
प्रकृति की लीला समझने के लिये मानव के पास गणित ही 'एक भरोसा, एक बल' है, परन्तु गणितीय निष्कर्ष निराकार ब्रह्म की तरह होते हैं । उनके साकार रूप की उपासना प्रयोगशाला के मन्दिर में होती है और इन्जीनियरी तथा प्रौद्योगिकी अपना काम निकालने के लिए सिद्धि-प्राप्ति का प्रयास हैं। इसी प्रकार परम तत्त्व को समझने के लिए कर्म-सिद्धान्त एक वास्तविक सच है, जिसमें स्वयं आत्मा निराकार ब्रह्म है और मोक्ष या कैवल्य या सिद्धि-प्राप्ति के साधन हैं- भक्ति, कर्म, ज्ञान व योग ।
संसार की सभी घटनाएँ, जीवों की सभी चेष्टाएँ, यहाँ तक कि स्वयं यह
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