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[ कर्म सिद्धान्त
पुद्गलों का प्रस्रव हमारे शारीरिक, मानसिक, वाचिक हलन चलन द्वारा होता है । स्रव के अन्य कई कारण जैन शास्त्रों में वर्णित हैं । आस्रवित पुद्गल काम, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि “ कषायों" और बुरी भावनाओं द्वारा "बंध" में परिणत हो जाते हैं । ये बंध कुछ क्षणिक, कुछ अर्ध स्थायी और कुछ स्थायी होते हैं । ये सभी कुछ, रासायनिक पद्धति द्वारा, शरीर से कर्म कराने की व्यवस्था करते हैं । अच्छे कर्म पिण्ड अच्छा कर्म और बुरे कर्म पिण्ड बुरा कर्म प्रभावित करते हैं । आत्मा स्वयं कुछ नहीं करता वह तो शुद्ध, बुद्ध, ज्ञानमय है । परन्तु उसकी उपस्थिति में ही कर्म होते हैं अन्यथा तो शरीर निर्जीव अचेतन, जड़ ही है ।
हम जो कुछ भी करते हैं - देखते - सुनते हैं सभी कुछ पुद्गल निर्मितपुद्गलमय होते हैं । इन्हें जैन वाङ्गमय में "व्यवहार" कहा गया हैं । " निश्चय" तो केवलमात्र आत्मा या आत्मा में लीन हो जाना ही हैं । एकाग्रता से एक ही प्रकार का कर्मास्रव होता है । आत्मा में ध्यान लगाने से चिन्ता, माया, मोह आदि से निर्लिप्त होने से कर्म पुद्गलों का आगमन और बंध एकदम रुक जाता है । इतना ही नहीं पुद्गल पिण्डों में से पुद्गल परमाणु निःसृत होते हैं। उनसे कर्मों की " निर्जरा" भी होती है । जिससे आत्मा की शुद्धता, कर्मों या कर्म पुद्गलों से छुटकारा मिलने से बढ़ती है ।
अनंतकालिक परंपरा से चले आते कौटुम्बिक अथवा सामाजिक प्रचलनों में फंसे लोग "अज्ञान" में ही पड़े रहकर सच्चे ज्ञान और सच्चे धर्म की शिक्षा की प्राप्ति नहीं कर पाते हैं । इसके लिए सभी को षट्द्रव्य, सप्ततत्त्व, नवपदार्थ - जैसा जैन सिद्धान्त में वर्णित है, उसकी जानकारी श्रावश्यक है । पर जैन सिद्धान्तों का तीव्र विरोध स्वार्थी लोगों ने इतना फैला रखा है कि इनका ज्ञान विरले लोगों को ही हो पाता है । जैन समाज भी इन तत्त्वों का प्रचार-प्रसार उचित रीति से नहीं करता, इससे संसार अव्यवस्था, अनीति और अनाचार एवं दुःखों से भरा हुआ है । सरल भाषा में सरल शब्दावली लिए यदि जैनदर्शन और सिद्धान्त की पुस्तकें लिखकर सस्ते दामों में प्रचारित की जाएं तो संसार का बड़ा भला हो । अभी तो हमारे श्रीमंत, पंडित, और गुरु मुनि लोगों का ध्यान इधर गया ही नहीं तो क्या हो ? जैन समाज को जैन तत्त्वों के प्रचार-प्रसार पर मंदिर निर्माण से अधिक खर्च करना चाहिए । इसी से सबका सच्चा भला होगा । जैन मंदिरों और संस्थानों में तो रुपया बहुत इकट्ठा है पर उस धन का सदुपयोग नहीं हो पाता । प्रति वर्ष मूर्ति प्रतिष्ठा, कल्याणक महोत्सव आदि समारोहों पर लाखों रुपया इकट्ठा होता है, पर क्या इन रुपयों का एक फीसदी भी तत्त्व - ज्ञान के प्रचार-प्रसार में खर्च होगा ? यदि यह धन ईंट, पत्थर, मंदिर, मूर्ति तथा इमारतों में न लगाकर प्रचार में उचित रीति से खर्च किया जाय तो समाज, देश, विश्व और मानवता का कितना भला हो !
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