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। कर्म और आधुनिक विज्ञान
प्राचार्य अनन्तप्रसाद जैन
'कर्म' का जो रूप और आत्मा के साथ सम्बन्ध के प्रारूप जो जैन सिद्धान्त ने स्थापित किए हैं, वे अत्यन्त आधुनिक विज्ञानमय हैं । जैन कर्म सिद्धान्त और आधुनिक विज्ञान में कोई विभेद नहीं है-सिवा इसके कि एक जीव-प्रात्मा-शरीरधारी से सम्बन्धित है तो दूसरा प्रायोगिक, रासायनिक और भौतिक प्रभावों के समीकरणों से संयुक्त है। आधुनिक विज्ञान ने जीव-जीवन और आत्मा सम्बन्धित रिसर्च (अनुसंधान) तो बहुत किया और कर रहा है पर अभी तक किसी विशेष नतीजे पर नहीं पहुंच पाया है। जैन तीर्थंकरों ने हजारों वर्ष पहले, तपस्या (गंभीर चिन्तन) द्वारा जीवन के विषय में जो उपलब्धियाँ प्राप्त की वे वैज्ञानिक तथ्यों और प्रयोगों द्वारा अकाट्य एवं पूर्णतः समर्थित पाई जाती हैं। यदि वैज्ञानिकों ने थोड़ा भी जैन कर्म सिद्धान्त का अध्ययन किया होता या करते तो एक महान सफलता को उपलब्धि उनके खोजों और अनुसंधान (रिसर्च) में हुई होती परन्तु अफसोस यही है कि वैज्ञानिक धर्म सिद्धान्त को बकवास मानते हैं और धर्माधिकारी लोग विज्ञान को धर्मद्वेषी। यदि दोनों मिलकर काम करें तो संसार की कितनी ही विसंगतियों और समस्याओं को सुलझाने में कठिनाई नहीं रह जाय । विशेषकर जैन कर्म सिद्धान्त तो परम वैज्ञानिक है । इस ओर प्राधुनिक वैज्ञानिकों तथा विद्वानों का ध्यान आकर्षित करने के लिए कुछ ऐसे साहित्य के सृजन की परम आवश्यकता है जिससे ऐसे लोगों में इस विषय में दिलचस्पी उत्पन्न हो सके।
विज्ञान का इलेक्ट्रन, प्रोटन, न्यूट्रन, पोजीट्रन आदि हमारे जैन कर्म सिद्धान्त के "पुद्गल परम परमाणु" ही हैं । तीर्थंकरों ने इन्हें जीव-जीवन और
आत्मा से संबंधित प्रभावों को व्यक्त किया। वे तो मानव की श्रेष्ठता, उसके दुःखों का निवारण, शाश्वत आनंद और मोक्ष प्राप्ति की दिशा में ही मानसिक अनुसंधान (तपस्या या गंभीर चिंतन) द्वारा उपलब्ध तथ्यों को प्रकाश में लाने में लगे रहे। उन्होंने भौतिक या सांसारिक सभी कूछ दुःखमय पाकर त्याग करने का ही उपदेश दिया। भौतिक संसार विज्ञान में इतना अधिक उन्नति कर गया है-पर क्या सभी सुखी हो सके हैं ? भौतिक समृद्धियाँ और जीवन के आयाम काफी बढ़ गए हैं। फिर भी मानव असंतुष्ट और दुखी ही पाया जाता है । भोगविलास से क्षणिक सुख ही होता है। शाश्वत सुख तो तीर्थंकरों के बतलाए मार्ग
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