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कर्म सिद्धान्त : एक टिप्पणी ]
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'कर्म की शक्ति' के स्वरूप के बारे में तथा उसके निर्देशन के बारे में विभिन्न भारतीय दार्शनिक तंत्रों के मत अलग-अलग हैं जिनकी संक्षेप में चर्चा करना सम्भव नहीं । यहां केवल दो विवादास्पद बिन्दुग्रों, जिन पर चर्चा की जानी चाहिये, को इंगित किया जाता है - ( १ ) क्या चेतन सत्ता के अतिरिक्त किसी अन्य अर्थात् कर्म में शक्ति रह सकती है ? तथा ( २ ) क्या नैतिक मूल्यों और प्राकृतिक गुणों को समान स्तर का माना जा सकता है ? इन प्रश्नों को उठाने का आधार यह है कि 'होना चाहिये' और 'है' दो अलग-अलग कोटियां हैं। एक को दूसरे में घटित करने में तार्किक कठिनाई उत्पन्न होती है ।
कुछ दर्शन- सम्प्रदाय कर्म सिद्धान्त के साथ ईश्वर के प्रत्यय को भी जोड़ते हैं । इन दार्शनिकों का मत है कि ईश्वर कुछ भी कर सकता है क्योंकि वह सर्वज्ञ है और सर्वशक्तिशाली है । लेकिन क्या उचित और अनुचित, शुभ और अशुभ, अच्छा या बुरा क्या है, इसे भी ईश्वर तय करता है ? लेकिन हम देखते हैं नैतिक नियम सार्वभौमिक नहीं होते और चूंकि नैतिक नियम प्राकृतिक नियम जैसे नहीं हैं अतः ईश्वर के नियमों के ज्ञान की सम्भावना संदेहास्पद है । इन आलोचनाओं से बचने का एक ही मार्ग है और वह है कि ईश्वर को नैतिक नियमों का स्रोत न मानकर मानव या मानव-समाज को ही नैतिकता का स्रोत माना जाय ।
कर्म से सम्बन्धित उपर्युक्त विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकलता है कि कर्मवाद की एक मान्यता तो यह है कि प्रत्येक कर्म का उसके अनुसार फल मिलता है, दूसरी मान्यता है कि पुनर्जन्म होता है और तीसरी मान्यता ( कुछ दर्शनों के अनुसार) यह है कि ईश्वर की सत्ता है और वह इन सबका नियंत्रण करता है ।
लेकिन इसके साथ-साथ हमने यह भी देखा है कि ऐसा मानने पर कुछ वैचारिक कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं । इन कठिनाइयों को दूर करने के लिए एक सुझाव प्रस्तुत किया कि अगर नैतिक विधान को मानवीय विधान मान लिया जाय तो ये कठिनाइयाँ दूर की जा सकती हैं । इस प्रकार की विचारधारा के पक्ष में हमें बहुत से तर्क मिल सकते हैं । प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्म के बारे में जानता है, अत: वह अपने कर्म के लिए उत्तरदायी भी है । अतः उसे कर्मों के लिए पुरस्कार और दण्ड दिया जा सकता है । लेकिन इस मत के विरुद्ध भी अनेक कठिनाइयाँ उपस्थित की जा सकती हैं क्योंकि विभिन्न कालों और समाजों में नैतिकता के स्तर या अच्छे और बुरे की परिभाषा भिन्न-भिन्न रही है, अतः हम कोई सार्वकालिक और सार्वभौमिक नियम नहीं बना पायेंगे । नैतिक नियम निरपवाद एवं निरपेक्ष होना चाहिये ।
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