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[ कर्म सिद्धान्त
की जा रही है और 'कर्म' पद का प्रयोग विभिन्न अर्थों में किया जा रहा है । अतः कर्म के स्वरूप और उससे सम्बन्धित कुछ प्रश्नों की दार्शनिक व्याख्या प्रस्तुत करना वांछनीय है।
चार्वाक दर्शन के अतिरिक्त सभी भारतीय दार्शनिक तंत्र किसी न किसी रूप में कर्म के प्रत्यय को स्वीकार करते हैं। कर्म को बन्धन के कारण के रूप में एवं मुक्ति के साधन के रूप में व्याख्यायित किया गया है। कर्म के बारे में विभिन्न मान्यताएँ हैं जिनके आधार पर कर्म के कारण और साधन रूप पर प्रकाश पड़ता है। एक मान्यता है कि प्रत्येक कर्म का कोई न कोई परिणाम अवश्य होता है (या होना चाहिये)। इस मान्यता (या वास्तविकता ?) का आधार है कारण और कार्य नियम की सार्वभौमिकता। दूसरे शब्दों में, कारण और कार्य में सार्वभौमिक सम्बन्ध है। इसी कारण और कार्य के नियम के आधार पर कर्म और फल के बीच सम्बन्ध की व्याख्या की जाती है। और कहा जाता है कि अगर हम इस नियम कि 'कर्म होगा तो फल अवश्य मिलेगा' को स्वीकार नहीं करेंगे तो कारण-कार्य नियम की सार्वभौमिकता को भी अस्वीकार करना पड़ेगा। अगर हम थोड़ा विचार करें तो ज्ञात होगा कि कर्मवादी मात्र इतना ही नहीं कह रहा है कि कारण और कार्य के बीच का सम्बन्ध भौतिक घटनाओं की व्याख्या तक सीमित है वरन् वह इस नियम को नैतिक घटनाओं की व्याख्या के लिये भी कह रहा है। ऐसा करते समय उसका यह दावा है कि कर्म का जैसे प्राकृतिक परिणाम होता है, उसी प्रकार नैतिक परिणाम भी होता है। देखा जाय तो कर्मवादी की रुचि इसी में ही होती है । कर्म चाहे व्यक्तिगत रूप से किया जाय या सामूहिक रूप से, उसका नैतिक परिणाम अवश्य होता है। इसीलिए कर्मवादी कहता है कि अच्छे कर्म का अच्छा और बुरे का बुरा परिणाम होता है।
कर्म के नैतिक परिणाम के बारे में सभी कर्मवादी एक मत नहीं हैं। नैतिक परिणाम मानने वाले विचारक यह मानते हैं कि कर्म से एक शक्ति उत्पन्न होती है जो जीव में सुरक्षित रहती है और बाद में नैतिक परिणाम उत्पन्न करती है। ये विचारक किसी व्यक्ति के हैजे से मरने या पेड़ से गिरकर हड्डी के टूटने जैसी घटनाओं की व्याख्या भी व्यक्ति द्वारा पिछले जन्म में किये गये अशुभ कर्मों के आधार पर करते हैं। इस दृष्टि से देखें तो ज्ञात होता है कि कर्मवादी न तो कर्म के प्राकृतिक कारणों में रुचि रखता है और न प्राकृतिक परिणाम में। उसके अनुसार किसी घटना का प्राकृतिक कारण वास्तविक कारण नहीं होता, वास्तविक कारण होता है पिछले कर्म से उत्पन्न शक्ति जो जीव में परिणाम उत्पत्ति तक रहती है। प्राकृतिक कारण उसके लिए गौणहोते हैं। उदाहरण के रूप में हैजे से मरना या पेड़ से गिरकर मरना, पिछले कर्म (उसके द्वारा किसी व्यक्ति की हत्या) का परिणाम कहा जायेगा।
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