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"जैसी करनी वैसी भरनी" पर एक टिप्पणी ]
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कल्पना कर भी लें, तो उसकी संभाव्यता के बारे में कोई निश्चय सम्भव नहीं होगा। इसके विपरीत मानवीय व्यवहार बड़ी सीमा में इस अपेक्षा पर निर्भर है कि घटनाओं में कोई परस्पर सम्बन्ध होता है, इस सम्बन्ध को कार्यकारण के रूप में जाना जा सकता है, तथा इस प्रकार के ज्ञान के आधार पर ही कर्म को सम्भावना को स्वीकार किया जा सकता है। अन्य शब्दों में, व्यवस्था एवं संगठन की अवधारणा ज्ञान तथा कर्म के लिए समान रूप में महत्त्वपूर्ण हैं।
कुछ दार्शनिकों ने इस सम्बन्ध में यह शंका उठाई है कि कार्यकारण की अनिवार्यता का कोई बौद्धिक एवं प्रानुभाविक आधार नहीं है। घटनाओं के किसी क्रम विशेष को अनेक बार देखने पर एक घटना से दूसरी घटना की ओर हमारा ध्यान सहसा ही चला जाता है, और हम मान बैठते हैं कि एक दूसरे का कारण है । स्कॉटलैण्ड के दार्शनिक ह्य म का यह मत दार्शनिकों के लिए भारी चुनौती रहा है। इस मत को यदि मान भी लें, तब भी इस बात पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता कि विषय ग्रहण के लिए बुद्धि की किंचित मांगों की पूर्ति आवश्यक है। इस बहस में जाये बिना तथा कम से कम इतना स्वीकार कर लेने पर कि घटनाओं में किसी प्रकार का क्रम देखना सम्भव है, उसका आधार चाहे कुछ भी हो, कर्म के विषय में भी यह अपेक्षा होती है कि कोई भी कर्म परिणाम स्वरूप किसी स्थिति विशेष में परिसमाप्त होता है । इस परिणाम तथा कर्म की ठोस प्रक्रिया में कोई सम्बन्ध होता है। यह उपयुक्त सम्बन्ध होना चाहिए । स्पष्ट है कि इस ढांचे में हम कर्म तथा परिणाम को दो अलग-अलग स्थितियोंकारण तथा कार्य के रूप में देख रहे हैं।
यहां एक कठिनाई उपस्थित होती है और वह कर्म के जीवनवृत्त को दूसरे रूप में देखने के लिए बाध्य करती है। परिणाम को कर्म से अलग देखने से क्या तात्पर्य है ? हमने कहा कि परिणाम वह स्थिति है जिसमें कर्म को परिसमाप्ति होती है । तो क्या यह कहना अधिक संगत नहीं होगा कि परिसमाप्ति तक जो कुछ होता है, वह सब कर्म है ? किसी व्यक्ति का इच्छा करना, संकल्प करना, विषय अथवा स्थिति विशेष (लक्ष्य) के प्राप्ति के निमित्त उद्यम करना, लक्ष्य को प्राप्त करना-ये सभी अवस्थाएँ कर्म के जीवन वत्त की विभिन्न अवस्थाएं हैं, और इनमें अन्तिम स्थिति कर्म के परिणाम की स्थिति है। इस अवस्था में कर्म तथा परिणाम का भेद वस्तुतः कर्म के अन्तर्गत ही पड़ेगा-कदाचित् 'कर्म' के स्थान पर केवल 'प्रक्रिया' कहना अधिक उचित होगा-प्रक्रिया तथा परिणाम कर्म के दो अंग होंगे जिनमें कारण और कार्य का सम्बन्ध मान सकेंगे। और फिर कारण तथा कार्य की संगति के सन्दर्भ में प्रक्रिया तथा परिणाम की संगति की चर्चा करना कदाचित् अधिक युक्तिसंगत होगा।
यहाँ प्रबुद्ध पाठक यह आपत्ति उठायेंगे कि कर्म फल की संगति, प्रक्रिया और परिणाम की संगति की बात नहीं है। इस आपत्ति को समझने के लिए
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