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" जैसी करनी वैसी भरनी" पर एक टिप्पणी
डॉ. राजेन्द्रस्वरूप भटनागर
हम सभी सुनते आये हैं कि जो जैसा करेगा वह वैसा फल पायेगा । 'जैसी करनी वैसी भरनी' । परन्तु हम में से बहुतों का यह अनुभव भी है, कि व्यवहार में इस मान्यता के उल्लंघन ही अधिक मिलते हैं । यदि अनुभव से इस मान्यता की पुष्टि नहीं होती तो इसे क्यों सही समझा जाय ? एक उत्तर यह हो सकता है कि यह मान्यता एक ऐसी दण्ड व्यवस्था की सूचक है, जो तब भी सक्रिय रहती है, जब मानवीय व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाती है, और परिणाम - स्वरूप सन्मार्ग में प्रवृत्ति के लिए इसमें विश्वास सहायक है । परन्तु पुनः शंका होती है कि यदि ऐसी कोई दण्ड व्यवस्था है तो उसकी पुष्टि किस प्रकार होती है ? मानवीय व्यवस्था के छिन्न-भिन्न होने पर ' त्राहि माम्, त्राहि माम्' तो सर्वत्र सुनाई पड़ता है, परन्तु उस पुकार को कोई सुनता है, यह कैसे निश्चय हो, जबकि अनुभव इसके विपरीत है । पुराण तथा साहित्य के क्षेत्र से ऐसे उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं जिनसे कर्म-फल की संगति की युक्ति का औचित्य सिद्ध हो । परन्तु ऐसे सभी उदाहरणों के विषय में, विवाद को स्थिति ( ऐतिहासिकता की दृष्टि से) होने से, इतना ही कहा जा सकता है, कि यह मान्यता मानवीय इच्छा की द्योतक है, हम चाहते हैं, किं ऐसा हो, पर ऐसा होगा, इसकी कोई गारन्टी नहीं । और यदि किन्हीं अवसरों पर ऐसी संगति मिल भी जाय तब भी यह सिद्ध नहीं होगा कि यह संगति अनिवार्य है । इसकी अनिवार्यता केवल तभी सिद्ध मानी जा सकती है जब उसका अपवाद असम्भव हो ।
दूसरी ओर इस उक्ति की विलक्षणता यह है कि विपरीत अनुभव होने पर भी बुद्धि को यह बात युक्तियुक्त लगती है, कि जो जैसा करेगा वह वैसा फल पायेगा । ऐसा क्यों ? इस सम्बन्ध में दो भिन्न प्रकार की बातों की ओर ध्यान जाता है। प्रथम तो कार्यकारण का सिद्धान्त, दूसरे कर्त्ता के सन्दर्भ में कर्म का जीवनवृत्त । यह बुद्धि की एक मांग है कि यदि घटनाएं बुद्धिग्राह्य हैं तो उनमें कार्यकारण सम्बन्ध प्राप्त होना चाहिए । यदि ऐसे संसार की कल्पना करें जिसमें कुछ भी सम्भव हो, किसी घटना के बाद कोई भी घटना हो जाती हो, तो वहां बुद्धि की कोई गति नहीं हो सकती - ऐसे संसार के विषय में किसी भी घटना के बारे में कोई युक्तियुक्त बात नहीं कही जा सकती । भविष्य के विषय में हमारी अपेक्षाएँ पहले तो हो ही नहीं सकतीं, और यदि हम किसी प्रकार की
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