SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मवाद : एक विश्लेषणात्मक अध्ययन ] [ २५ इन दोनों प्रकार के परमाणुओं से पूर्ण है । शरीर पौद्गलिक है, उसका कारण कर्म है, अतः वह भी पौद्गलिक है। पौद्गलिक कार्य का समवायी कारण पौद्गलिक है । मिट्टी आदि भौतिक हैं और उनसे निर्मित होने वाला पदार्थ भी भौतिक ही होगा। अनुकूल आहार आदि से सुख की अनुभूति होती है और शस्त्रादि के प्रहार से दुःखानुभूति होती है। आहार और शस्त्र जैसे पौद्गलिक हैं वैसे ही सुख-दुःख के प्रदाता कर्म भी पौद्गलिक हैं । बन्ध की दष्टि से जीव और पूदगल दोनों भिन्न नहीं हैं किन्तु एकमेक हैं, पर लक्षण की दृष्टि से दोनों पृथक-पृथक हैं। जीव अमूर्त व चेतना युक्त है जबकि पुद्गल मूर्त और अचेतन है। इन्द्रियों के विषय-स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द ये मूर्त हैं और उनका उपभोग करने वाली इन्द्रियाँ भी मूर्त हैं। उनसे उत्पन्न होने वाला सुख-दुःख भी मूर्त है, अतः उनके कारणभूत कम भी मूर्त हैं। मूर्त ही मूर्त को स्पर्श करता है । मुर्त ही मूर्त से बंधता है। अमूर्त जीव मूर्त कर्मों को अवकाश देता है । वह उन कर्मों से अवकाशरूप हो जाता है । गीता, उपनिषद् आदि में श्रेष्ठ और कनिष्ठ कार्यों के अर्थ में “कर्म" शब्द व्यवहृत हुआ है । वैसे जैन दर्शन में कर्म शब्द क्रिया का वाचक नहीं रहा है । उसके मन्तव्यानुसार वह आत्मा पर लगे हुए सूक्ष्म पौद्गलिक पदार्थ का वाचक है। ___ जीव अपने मन, वचन और काय की प्रवृत्तियों से कर्म-वर्गणा के पुदगलों को आकर्षित करता है । मन, वचन और काय की प्रवृत्ति तभी होती है जब जीव के साथ कर्म का सम्बद्ध हो । जीव के साथ कर्म तभी सम्बद्ध होता है जब मन, वचन, काय की प्रवृत्ति हो । इस तरह प्रवृत्ति से कर्म और कर्म से प्रवृत्ति की परम्परा अनादि काल से चल रही है। कर्म और प्रवृत्ति के कार्य और कारण भाव को लक्ष्य में रखते हुए पुद्गल परमाणुओं के पिण्डरूप कर्म को द्रव्यकर्म कहा है और राग-द्वषादि रूप प्रवृत्तियों को भावकर्म कहा है। इस तरह कर्म के मुख्य रूप से दो भेद हुए- द्रव्यकर्म और भावकर्म । द्रव्यकर्म के होने में भावकर्म और भावकर्म के होने में द्रव्यकर्म कारण है । जैसे वृक्ष से बीज और बीज से वृक्ष की परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है, इसी प्रकार द्रव्यकर्म से भावकर्म और भावकर्म से द्रव्य कर्म का सिलसिला भी अनादि है। कर्म पर चिन्तन करते समय यह स्मरण रखना चाहिए कि जड़ और Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy