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________________ २४ ] [ कर्म सिद्धान्त अभिनिवेश इन पाँच क्लेशों से क्लिष्टवृत्ति उत्पन्न होती है। प्रस्तुत क्लिष्टवृत्ति से धर्माधर्म रूपी संस्कार पैदा होता है। संस्कार को आशय, वासना, कर्म और अपूर्व भी कहा जाता है । क्लेश और संस्कार को बीजांकुरवत् अनादि माना है। ___ मीमांसा दर्शन का अभिमत है कि मानव द्वारा किया जाने वाला यज्ञ आदि अनुष्ठान अपूर्व नामक पदार्थ को उत्पन्न करता है और वह अपूर्व ही यज्ञ आदि जितने भी अनुष्ठान किये जाते हैं उन सभी कर्मों का फल देता है। दूसरे शब्दों में कहें तो वेद द्वारा प्ररूपित कर्म से उत्पन्न होने वाली योग्यता या शक्ति का नाम अपूर्व है । वहाँ पर अन्य कर्मजन्य सामर्थ्य को अपूर्व नहीं कहा है । वेदान्त दर्शन का मन्तव्य है कि अनादि अविद्या या माया ही विश्ववैचित्र्य का कारण है । ईश्वर कर्म के अनुसार जीव को फल प्रदान करता है, इसलिए फल प्राप्ति कर्म से नहीं अपितु ईश्वर से होती है। बौद्ध दर्शन का अभिमत है कि मनोजन्य संस्कार वासना है और वचन और कायजन्य संस्कार अविज्ञप्ति है । लोभ, द्वेष और मोह से कर्मों की उत्पत्ति होती है । लोभ, द्वेष और मोह से ही प्राणी मन, वचन और काय की प्रवृत्तियाँ करता है और उससे पुनः लोभ, द्वेष और मोह पैदा करता है, इस तरह अनादि काल से यह संसार चक्र चल रहा है । जैन दर्शन में कर्म का स्वरूप : अन्य दर्शनकार कर्म को जहाँ संस्कार या वासना रूप मानते हैं वहाँ जैनदर्शन उसे पौद्गलिक मानता है। यह एक परखा हुआ सिद्धान्त है कि जिस वस्तु का जो गुण होता है वह उसका विघातक नहीं होता। आत्मा का गुण उसके लिए आवरण, पारतन्त्र्य और दुःख का हेतु नहीं हो सकता। कर्म आत्मा के प्रावरण, पारतन्त्र्य और दुःखों का कारण है, गुणों का विघातक है, अतः वह आत्मा का गुण नहीं हो सकता। बेड़ी से मानव बंधता है, मदिरापान से पागल होता है और क्लोरोफार्म से बेभान । ये सभी पौद्गलिक वस्तुएँ हैं। ठीक इसी तरह कर्म के संयोग से आत्मा की भी ये दशाएँ होती हैं, अतः कर्म भी पौद्गलिक हैं। बेड़ी आदि का बन्धन बाहरी है, अल्प सामर्थ्य वाला है किन्तु कर्म आत्मा के साथ चिपके हुए हैं, अधिक सामर्थ्य वाले सूक्ष्म स्कन्ध हैं एतदर्थ ही बेड़ी आदि की अपेक्षा कर्मपरमारणुत्रों का जीवात्मा पर बहुत गहरा और अान्तरिक प्रभाव पड़ता है । जो पुदगल-परमाणु कर्म रूप में परिणत होते हैं उन्हें कर्म वर्गणा कहते हैं और जो शरीर रूप में परिणत होते हैं उन्हें नोकर्म वर्गणा कहते हैं । लोक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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