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कर्म का सामाजिक संदर्भ ]
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के लिए संयम की लगाम आवश्यक है। समाज में व्यवस्था एवं स्वच्छ वातावरण तभी रह सकता है जब उसके सदस्य संयमित आचरण करें। प्रेम, करुणा, बन्धुत्व-भाव के द्वारा ही मनुष्य का जीवन उन्नत एवं सामाजिक बनता है। चेतना का विकास होने पर ही मानव समाज लोक कल्याण की भावना की ओर उन्मुख होता है । जब जिन्दगी लक्ष्यहीन हो जाती है तो सम्पूर्ण जीवन में भटकाव आ जाता है । यही भटकाव संत्रास एवं तनाव को जन्म देता है । इससे मुक्ति पाना समस्या बन जाती है । जब-जब संयम की सीमायें टूटती हैं, जीवन एवं परिवेश दूषित एवं विषाक्त होने लगता है।
परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करने, वंशानुक्रमण एवं व्यक्तित्व का प्रसार तथा आत्म परिवेष्टन के अतिक्रमण के कारण मनुष्य अकेला नहीं रह पाता । वह समाज बनाता है । समाज के अस्तित्व के लिए परस्पर सहयोग, समझदारी एवं साझेदारी आवश्यक है । कोई भी समाज धर्म चेतना से विमुख होकर नहीं रह सकता। धर्म सम्प्रदाय नहीं । धर्म पवित्र अनुष्ठान है। जिन्दगी में जो हमें धारण करना चाहिए-वही धर्म है। हमें जिन नैतिक मूल्यों को जिन्दगी में उतारना चाहिए-वही धर्म है । समाज की व्यवस्था, शान्ति तथा समाज के सदस्यों में परस्पर प्रेम एवं विश्वास का भाव जगाने के लिए धर्म का पालन आवश्यक है। धर्म के पालन का अर्थ ही है-श्रेष्ठ नैतिक कर्मों के अनुरूप आचरण ।
मन की कामनाओं को नियंत्रित किए बिना समाज रचना सम्भव नहीं है । कामनाओं के नियंत्रण की शक्ति या तो धर्म में है या शासन की कठोर व्यवस्था में । धर्म का अनशासन 'आत्मानुशासन' होता है। व्यक्ति अपने पर स्वयं नियंत्रण करता है। शासन का नियंत्रण हमारे ऊपर 'पर' का अनुशासन होता है । दूसरों के द्वारा अनुशासित होने पर हम विवशता का अनुभव करते हैं, परतंत्रता का बोध करते हैं, घुटन की प्रतीति करते हैं ।
धर्म मानव हृदय की असीम कामनाओं को स्व की प्रेरणा से सीमित कर देता है । धर्म हमारी दृष्टि को व्यापक बनाता है, मन में उदारता, सहिष्णुता एवं प्रेम की भावना का विकास करता है ।
अभी तक धर्म एवं दर्शन की व्याख्यायें इस दृष्टि से हुईं कि उससे हमारा भविष्य जीवन उन्नत होगा । धर्म के आचरण की वर्तमान व्यक्तिगत जीवन एवं सामाजिक जीवन की दृष्टि से सार्थकता क्या है, इसको केन्द्र बनाकर चिन्तन करने की महती आवश्यकता है तभी कर्म का सामाजिक सन्दर्भ स्पष्ट हो सकेगा।
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