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________________ २६२ ] [ कर्म सिद्धान्त में राजकीय स्वामित्व आता है तो आगे चलकर उसके पूजीवादी तानाशाही के स्वरूप में बदलने की सम्भावना से कैसे इन्कार किया जा सकता है ? वास्तव में 'पेट की भूख' एवं 'शरीर की भूख' मनुष्य की नैसर्गिक प्रवृत्तियाँ हैं। प्राकृतिक जीवन में मनुष्य पशुओं की तरह आचरण करता है। अपनी भूख को मिटाने के लिए कोई नियम नहीं होते। इस व्यवस्था में शारीरिक दृष्टि से सबल मनुष्यों के सामने निर्बल मनुष्यों को हानि उठानी पड़ती है । सबल मनुष्य निर्बल को पराजित कर भूख मिटाता है । भूख मिटाकर भी उसके जीवन में शान्ति नहीं रहती। उसे अन्य सबल व्यक्तियों का डर लगा रहता है । छीना-झपटी, झगड़ा-फसाद जीवन में बढ़ जाता है। इन्हीं से बचने के लिए मनुष्य ने समाज बनाया। शरीर की भूख तथा पेट की भूख की तृप्ति के लिए सामाजिक नियम बनाए । शरीर की भूख की तृप्ति के लिए 'विवाह' संस्था का जन्म हुआ । परिवार बना । घर बना । निश्चित हुआ एक पुरुष की एक पत्नी । उसकी पत्नी पर उसका अधिकार। उसकी पत्नी पर दूसरों का कोई अधिकार नहीं । दूसरों की पत्नियों पर उसका कोई अधिकार नहीं। उसने अपनी झोपड़ी बनायो । घर बनाया। घर के चारों ओर चार दिवारी बनायी। घर के क्षेत्र की सीमा निर्धारित हुई । उसके घर पर उसका अधिकार । उसके घर पर दूसरों का अधिकार नहीं। दूसरों के घर पर उसका कोई अधिकार नहीं। पेट की भूख मिटाने हेतु उसने जमीन साफ की, बीजों का वपन किया, कृषि-कर्म किया। अपने खेत के चारों ओर मेंड़ें बनायीं। सरहदें स्थापित की। उसकी सरहद वाली भूमि पर दूसरों का अधिकार नहीं। दूसरों के खेत पर उसका अधिकार नहीं । अपना-अपना खेत, अपनी-अपनी पैदावार । अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अन्य प्रकार के उद्यम एवं उद्योग धन्धों का विकास हुआ, इन क्षेत्रों में इसी प्रकार की सीमा एवं समझदारी विकसित हुई। इस प्रकार समाज के अस्तित्व की आधारशिला परस्पर समझदारी, सीमा, एक दूसरे के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण न करने का संयम, शर्तों का परस्पर सम्मान एवं एक दूसरे के अस्तित्व वृत्त एवं अधिकार वृत्त के प्रति सहिष्णुता ही है। इसी समाज में व्यक्ति संयम के साथ भोग करता आया है, अपने जीवन को बेहतर बनाता आया है। मनूष्य में नैसर्गिक प्रकृति के साथ-साथ वृत्तियों के उन्नयन, परिष्कार, संस्कार की प्रवृत्ति भी रहती है। इसी कारण वह अपने जीवन को सामाजिक बनाता है । सामाजिक जीवन नीति से ही सम्भव है, अनीति से नहीं। नैतिक आचरण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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