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________________ २६० ] [ कर्म सिद्धान्त वे भूल गए कि प्रेम में सौन्दर्य चेतना के लिए एकनिष्ठता आवश्यक है। मनुष्य ने अपने को पशु जगत् से भिन्न 'मानव' बनाया था, समाज का निर्माण किया था, काम भाव का संयमीकरण किया था, स्व पत्नी द्वारा, काम वासना की संतुष्टि की प्रक्रिया द्वारा ब्रह्मचर्य की सामाजिक व्यवस्था का आदर्श निर्मित किया था। वह सुखी था। उसकी जिन्दगी में अपने प्रेम के आलम्बन के प्रति विश्वास रहता था। उसने इस सत्य को खोज निकाला था कि सम्भोग-सुख की पूर्ण अनुभूति एवं तृप्ति के लिए भी इन्द्रिय-नियंत्रण आवश्यक है। इस परिवर्तन से क्या व्यक्ति को सुख प्राप्त हो सका है ? परिवार के सदस्यों में पहले परस्पर जो प्यार एवं विश्वास पनपता था उसकी निरन्तर कमी होती जा रही है । जो सदस्य भावना की पवित्र डोरी से बंधे रहते थे, वह टूटती जा रही है । पहले पति-पत्नी का सुख-दुःख एक होता था। उनकी इच्छाओं की धुरी 'स्व' न होकर 'परिवार' होती थी। वे अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं को पूरा करने के बदले अपने बच्चों एवं परिवार के अन्य सदस्यों की इच्छाओं की पूर्ति में सहायक बनना अधिक अच्छा समझते थे। पाश्चात्य जीवन ने पहले संयुक्त कुटुम्ब प्रणाली को तोड़ा। फिर परिवार में पति-पत्नी अपने में सिमटे, बच्चों के प्रति अपने उत्तरदायित्वों की उन्होंने अवहेलना की। परिवार में अपने ही बच्चे बेगाने हो गए। बच्चों का कमरा अलग, माँ-बाप का कमरा अलग । बच्चों की दुनिया अलग, माँ-बाप की दुनिया अलग । एक ही घर में रहते हुए भी कोई भावात्मक सम्बन्ध नहीं। बच्चों में आक्रोश पनपा । वे विद्रोही हो गए। अधिक भावुक एवं संवेदनशील 'हिप्पी' बन गए । 'हिप्पी पीढ़ी' इतिहास के पन्नों पर उभर गयी । जो व्यवस्था से नहीं भागे, उन्होंने जब बड़े होकर अपना घर बसाया तो उनके घर में उनके माँ-बाप पराये हो गए। पहले पति-पत्नी आजीवन साथ-साथ रहने के लिए प्रतिबद्ध होते थे। दोनों का सुख-दुःख एक होता था। दोनों को विश्वास रहता था कि वे आजीवन साथ-साथ रहेंगे । विवाह पर कोई नहीं कहता था कि आप लोग आजीवन साथसाथ रहें । यह तो जीवन का माना हुआ तथ्य होता था । आजीवन सुखी एवं सानंद रहने की कामना की जाती थी। जब मनुष्य को चेतना क्षणिक, संशयपूर्ण एवं तात्कालिकता में ही केन्द्रित होकर रह गयी तो व्यक्ति अपने स्वार्थों में सिमटता गया। सम्पूर्ण भौतिक सुखों को अकेला भोगने की दिशा में व्यग्र मनुष्य ने प्रेम को एकनिष्ठता का आदर्श भी तोड़ डाला । आज पति-पत्नी में परस्पर विश्वास भी टूट रहा है । तलाकों की संख्या बढ़ती जा रही है। दुःखों को अकेले ही भोगना नियति हो गयी है। 'भरी भीड़ में अकेला' मुहावरा हो गया है । मानसिक रोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। व्यक्ति भौतिक उपकरणों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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