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________________ कर्म का सामाजिक संदर्भ ] [ २८६ जीवन के कर्मों का फल है। वर्तमान जीवन के आचरण के द्वारा हमारे भविष्य का स्वरूप निर्धारित होगा । वह वर्तमान जीवन को साधन तथा भविष्य को साध्य मानकर चलता था । पुनर्जन्म के विश्वास की आधार भूमि पर ही 'कर्मों के फल' के सिद्धान्त का प्रवर्तन हुआ। आज के व्यक्ति की दृष्टि 'वर्तमान' को ही सुखी बनाने पर है। वह अपने वर्तमान को अधिकाधिक सुखी बनाना चाहता है। अपनी सारी इच्छाओं को इसी जीवन में तृप्त कर लेना चाहता है । आज का मानव संशय और द्विधा के चौराहे पर खड़ा है। वह सुख की तलाश में भटक रहा है । धन बटोर रहा है। भौतिक उपकरण जोड़ रहा है। वह अपना मकान बनाता है। आलीशान इमारत बनाने के स्वप्न को मूर्तिमान करता है। मकान सजाता है। सोफासेट, वातानुकूलित व्यवस्था, मँहगे पर्दे, प्रकाश-ध्वनि के आधुनिकतम उपरकण एवं उनके द्वारा रचित मोहक प्रभाव । उसको यह सब अच्छा लगता है। जिन लोगों को जिन्दगी जीने के न्यूनतम साधन उपलब्ध नहीं हो पाते वे संघर्ष करते हैं । आज वे अभाव का कारण अपने विगत कर्मों को न मानकर सामाजिकव्यवस्था को मानते हैं। समाज से अपेक्षा रखते हैं कि वह उन्हें जिन्दगी जीने की स्थितियाँ मुहैया करावे । यदि ऐसा नहीं हो पाता तो वे आज हाथ पर हाथ धरकर बैठने के लिए तैयार नहीं हैं। वे सारी सामाजिक व्यवस्था को नष्टभ्रष्ट कर देने के लिए बेताब हैं। __व्यक्ति के चिन्तन को फ्रायड एवं मार्क्स दोनों ने प्रभावित किया है । फ्रायड ने व्यक्ति की प्रवृत्तियों एवं सामाजिक नैतिकता के बीच 'संघर्ष' एवं 'द्वन्द्व' को अभिव्यक्त किया है। उसकी दृष्टि में 'सैक्स' सर्वाधिक प्रमुख है। इसी एकांगी दृष्टिकोण से जीवन को विश्लेषित एवं विवेचित करने का परिणाम 'कीन्से रिपोर्ट' के रूप में सामने आया । इस रिपोर्ट ने सैक्स के मामले में मनुष्य की मनःस्थितियों का विश्लेषण करके 'नार्मल आदमी' के व्यवहार के मानदण्ड निर्धारित किए । संयम की सीमायें टूटने लगीं। भोग का अतिरेक सामान्य व्यवहार का पर्याय बन गया। जिनके जीवन में यह अतिरेक नहीं था उन्होंने अपने को मनोरोगी मान लिया । सैक्स-कुठानों के मनोरोगियों की संख्या बढ़ती गयी। मनोविज्ञान भी चेतना के ऊर्ध्व आरोहण में विश्वास रखता है। प्रेम से तो संतोष, विश्वास, अनुराग एवं आस्था प्राप्त होती है । किन्तु पाश्चात्य जीवन ने तो प्रेम का अर्थ इन्द्रियों की निर्बाध तृप्ति मान लिया। 'प्रेम' को निरर्थक करार दे दिया गया । 'वासना' तृप्ति ही जिन्दगी का लक्ष्य हो गया। प्रेम में तो मधुरिमा और त्याग होता है। अब हैवानियत एवं भोग की बाढ़ आ गयी। परिवार की व्यवस्थायें टूटने लगीं। एकनिष्ठ प्रेम का आदर्श समाप्त होने लगा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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