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[ कर्म सिद्धान्त
जुदा चीजें हैं तो साधन भी दोनों के लिये जुदा-जुदा ही होंगे। जब इन दोनों का मेल बैठ जाता है तो साध्य हमारे हाथ लग जाता है । मन एक तरफ और शरीर दूसरी तरफ ऐसा न हो जाये, इसलिये शास्त्रकारों ने दुहरा मार्ग बताया है । भक्तियोग में बाहर से तप व भीतर से जप बताया है । उपवास आदि बाहरी तप के चलते हुए यदि भीतर से मानसिक जप न हो, तो वह सारा तप फिजूल गया । तप सम्बन्धी मेरी भावना सतत सुलगती, जगमगाती रहनी चाहिये । उपवास शब्द का अर्थ ही है, भगवान के पास बैठना । इसलिये कि परमात्मा के नजदीक हमारा चित्त रहे, बाहरी भोगों का दरवाजा बंद करने की जरूरत है । परन्तु बाहर से विषय भोगों को छोड़कर यदि मन में भगवान का चिन्तन न होता, तो फिर इस बाहरी उपवास की क्या कीमत रही ? ईश्वर का चिन्तन न करते हुए यदि उस समय खाने-पीने की चीजों का चिन्तन करें तो फिर वह बड़ा ही भयंकर भोजन हो गया । यह जो मन से भोजन हुआ, मन में जो विषय चिन्तन रहा, इससे बढ़कर भयंकर वस्तु दूसरी नहीं । तंत्र के साथ मंत्र होना चाहिये | कोरे बाह्य तन्त्र का कोई महत्त्व नहीं है और न केवल कर्महीन मन्त्र का भी कोई मूल्य है । हाथ में भी सेवा हो व हृदय में भी सेवा हो, तभी सच्ची सेवा हमारे हाथों बन पड़ेगी ।
बाह्य कर्म में हृदय की आर्द्रता न रही, तो वह स्वधर्माचरण रूखासूखा रह जायेगा । उसमें निष्कामता रूपी फूल - फल नहीं लगेंगे । फर्ज कीजिये कि हमने किसी रोगी की सेवा सुश्रूषा शुरू की, परन्तु उस सेवा - कर्म के साथ यदि मन में कोमल दया भाव न हो तो वह रुग्ण सेवा नीरस मालूम होगी व उससे जी ऊब उठेगा । वह एक बोझ मालूम देगी। रोगी को भी वह सेवा एक बोझ मालूम पड़ेगी । उसमें यदि मन का सहयोग न हो तो उससे अहंकार पैदा होगा । मैंने आज उसका काम किया है । उसे जरूरत के वक्त मेरी सहायता करनी चाहिये । मेरी तारीफ करनी चाहिये । मेरा गौरव करना चाहिये आदि अपेक्षाएँ मन में उत्पन्न होंगी । अथवा हम त्रस्त होकर कहेंगे - हम इसकी इतनी सेवा करते हैं, फिर भी यह बड़बड़ाता रहता है। बीमार आदमी वैसे ही चिड़चिड़ा रहता है । उसके ऐसे स्वभाव से ऐसा सेवक, जिसके मन में सच्चा सेवा-भाव नहीं होता, ऊब जायेगा ।
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कर्म के साथ जब आन्तरिक भाव का मेल हो जाता है तो वह कर्म कुछ और ही हो जाता है । तेल और बत्ती के साथ जब ज्योति का मेल होता है, तब प्रकाश उत्पन्न होता है । कर्म के साथ विकर्म का मेल हुआ तो निष्कामता श्राती है । बारूद में बत्ती लगाने से धड़ाका होता है । उस बारूद में एक शक्ति उत्पन्न होती है। कर्म को बंदूक की बारूद की तरह समझो। उसमें विकर्म की बत्ती या आग लगी कि काम हुआ। जब तक विकर्म आकर नहीं मिलता, तब तक वह कर्म जड़ है, उसमें चैतन्य नहीं । एक बार जहाँ विकर्म की चिनगारी उसमें
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