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कर्म, विकर्म और अकर्म ] ..
[ २६६ कहती है । 'कर्म', 'विकर्म' व 'अकर्म' ये तीन शब्द बड़े महत्त्व के हैं। कर्म का अर्थ है-स्वधर्माचरण की बाहरी स्थूल क्रिया। इस बाहरी क्रिया में चित्त को लगाना ही 'विकर्म' है। बाहर से हम किसी को नमस्कार करते हैं, परन्तु उस बाहरी सिर झुकाने की क्रिया के साथ ही यदि भीतर से मन भी न झुकता हो तो बाह्य क्रिया व्यर्थ है । अन्तर्बाह्य-भीतर व बाहर दोनों एक होना चाहिये। बाहर से मैं शिव-पिंड पर सतत जल धारा छोड़कर अभिषेक करता हूँ परन्तु इस जल धारा के साथ ही यदि मानसिक चिन्तन की धारा भी अखण्ड न चलती रहती हो तो उस अभिषेक की क्या कीमत रही ? ऐसी दशा में वह शिवपिंड भी पत्थर व मैं भी पत्थर ही। पत्थर के सामने पत्थर बैठायही उसका अर्थ होगा। निष्काम कर्मयोग तभी सिद्ध होता है जब हमारे बाह्य कर्म के साथ अंदर से चित्त-शुद्धि रूपी कर्म का भी संयोग हो ।
'निष्काम कर्म' इस शब्द-प्रयोग में 'कर्म' पद की अपेक्षा 'निष्काम' पद को ही अधिक महत्त्व है, जिस तरह 'अहिंसात्मक असहयोग' शब्द प्रयोग में असहयोग की बनिस्पत 'अहिंसात्मक' विशेषण को ही अधिक महत्त्व है। अहिंसा को दूर हटाकर यदि केवल असहयोग का अवलंबन करेंगे, तो वह एक भयंकर चीज बन सकती है । उसी तरह स्वधर्माचरण रूपी कर्म करते हुए यदि मन का विकर्म उसमें नहीं जुड़ा है तो उसे धोखा समझना चाहिये।
आज जो लोग सार्वजनिक सेवा करते हैं, वे स्वधर्म का ही आचरण करते हैं । जब लोग, गरीब, कंगाल, दुःखी व मुसीबत में होते हैं तब उनकी सेवा करके उन्हें सुखी बनाना प्रवाह-प्राप्त धर्म है। परन्तु इससे यह अनुमान न कर लेना चाहिये कि जितने भी लोग सार्वजनिक सेवा करते हैं, वे सब कर्मयोगी हो गए हैं । लोक-सेवा करते हुए यदि मन में शुद्ध भावना न हो तो उस लोक-सेवा के भयानक होने की सम्भावना है। अपने कुटुम्ब की सेवा करते हुए जितना अहंकार, जितना द्वेष-मत्सर, जितना स्वार्थ आदि विकार हम उत्पन्न करते हैं, उतने सब लोक-सेवा में भी हम उत्पन्न करते हैं और इसका प्रत्यक्ष दर्शन हमें आजकल की लोक-सेवा मण्डलियों के जमघट में भी हो जाता है।
कर्म के साथ मन का मेल होना चाहिये। इस मन के मेल को ही गीता 'विकर्म' कहती है। बाहर का स्वधर्म रूप सामान्य कर्म और यह आन्तरिक विशेष कर्म। यह विशेष कर्म अपनी-अपनी मानसिक जरूरत के अनुसार जुदाजुदा होता है । विकर्म के ऐसे अनेक प्रकार, नमूने के तौर पर बताये गये हैं । इस विशेष कर्म का, इस मानसिक अनुसन्धान का योग जब हम करेंगे, तभी उसमें निष्कामता की ज्योति जगेगी। कर्म के साथ जब विकर्म मिलता है तो फिर धीरे-धीरे निष्कामता हमारे अन्दर आती रहती है। यदि शरीर व मन जुदा
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