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कर्म और कार्य-मर्यादा ]
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सम्पत्ति के जोड़ने की कोई मर्यादा नहीं, वहाँ अपनी-अपनी योग्यता व साधनों के अनुसार गरीब-अमीर इन वर्गों की सृष्टि हुआ करती है। गरीब और अमीर इनको पाप-पुण्य का फल मानना किसी भी हालत में उचित नहीं है। रूस ने बहुत कुछ अंशों में इस व्यवस्था को तोड़ दिया है इसलिये वहाँ इस प्रकार का भेद नहीं दिखाई देता है फिर भी वहाँ पुण्य और पाप तो हैं ही । सचमुच में पुण्य और पाप तो वह है जो इन बाह्य व्यवस्थाओं के परे हैं और वह है आध्यात्मिक । जैन कर्मशास्त्र ऐसे ही पुण्य-पाप का निर्देश करता है।
__ शंका-यदि बाह्य सामग्री का लाभालाभ पुण्य-पाप का फल नहीं है तो सिद्ध जीवों को इसकी प्राप्ति क्यों नहीं होती ?
__ समाधान-बाह्य सामग्री का सद्भाव जहाँ है वहीं उसकी प्राप्ति संभव है। यों तो इसकी प्राप्ति जड़-चेतन दोनों को होती है। क्योंकि तिजोरी में भी धन रखा रहता है इसलिये उसे भी धन की प्राप्ति कहा जा सकता है। किन्तु जड़ के रागादि भाव नहीं होता और चेतन के होता है, इसलिये वही उसमें ममकार और अहंकार भाव करता है ।
शंका-यदि बाह्य सामग्री का लाभालाभ पुण्य-पाप का फल नहीं है तो न सही पर सरोगता और नीरोगता यह तो पाप-पुण्य का फल मानना ही पड़ता है।
___समाधान-सरोगता और नीरोगता यह पाप-पुण्य के उदय का निमित्त भले ही हो जाय पर स्वयं वह पाप-पुण्य का फल नहीं है। जिस प्रकार बाह्य सामग्री अपने-अपने कारणों से प्राप्त होती है, उसी प्रकार सरोगता और नीरोगता भी अपने-अपने कारणों से प्राप्त होती है। इसे पाप-पुण्य का फल मानना किसी भी हालत में उचित नहीं है।
शंका-सरोगता और नीरोगता के क्या कारण हैं ?
समाधान-अस्वास्थ्यकर आहार, विहार व संगति करना आदि सरोगता के कारण हैं और स्वास्थ्यवर्धक आहार, विहार व संगति करना आदि नीरोगता के कारण हैं।
इस प्रकार कर्म की कार्य-मर्यादा का विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्म बाह्य सम्पत्ति के संयोग-वियोग का कारण नहीं है। उसकी मर्यादा उतनी ही है जिसका निर्देश हम पहले कर आये हैं। हाँ, जीव के विविध भाव कर्म के निमित्त से होते हैं और ये कहीं-कहीं बाह्य सम्पत्ति के अर्जन आदि में कारण पड़ते हैं, इतनी बात अवश्य है।
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