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________________ २४६ ] [ कर्म सिद्धान्त लाभान्तराय आदि कर्म के क्षय व क्षयोपशम का ही फल है। बाह्य सामग्री इन कारणों से न प्राप्त होकर अपने-अपने कारणों से ही प्राप्त होती है। उद्योग करना, व्यवसाय करना, मजदूरी करना, व्यापार के साधन जटाना, राजामहाराजा या सेठ-साहूकार की साहूकारी करना, उनसे दोस्ती जोड़ना, अजित धन की रक्षा करना, उसे ब्याज पर लगाना, प्राप्त धन को विविध व्यवसायों में लगाना, खेतीबाड़ी करना, झांसा देकर ठगी करना, जेब काटना, चोरी करना, जुआ खेलना, भीख मांगना, धर्मादय को संचित कर पचा जाना आदि बाह्य सामग्री की प्राप्ति के साधन हैं । इन व अन्य कारणों से बाह्य सामग्री की प्राप्ति होती है, उक्त कारणों से नहीं । शंका-इन सब बातों के या इनमें से किसी एक के करने पर भी हानि देखी जाती है सो इसका क्या कारण है ? समाधान-प्रयत्न की कमी या बाह्य परिस्थिति या दोनों। शंका-कदाचित् व्यवसाय आदि के नहीं करने पर भी धन प्राप्ति देखी जाती है तो इसका क्या कारण है ? समाधान-यहाँ यह देखना है कि वह प्राप्ति कैसे हुई है ? क्या किसी के देने से हुई या कहीं पड़ा हुआ धन मिलने से हुई है ? यदि किसी के देने से हुई है तो इसमें जिसे मिला है उसके विद्या आदि गुण कारण हैं या देने वाले की स्वार्थसिद्धि, प्रेम आदि कारण हैं। यदि कहीं पड़ा हुआ धन मिलने से हुई है तो ऐसी धन प्राप्ति, पुण्योदय का फल कैसे कहा जा सकता है ? यह तो चोरी है । अतः चोरी के भाव इस धन प्राप्ति में कारण हुए न कि साता का उदय । शंका-दो आदमी एक साथ एक सा व्यवसाय करते हैं फिर क्या कारण है कि एक को लाभ होता है दूसरे को हानि ? समाधान व्यापार करने में अपनी-अपनी योग्यता और उस समय की परिस्थिति आदि इसका कारण है, पाप-पुण्य नहीं। संयुक्त व्यापार में एक को हानि और दूसरे को लाभ हो तो कदाचित् हानि-लाभ, पाप-पुण्य का फल माना भी जाये । पर ऐसा होता नहीं, अतः हानि-लाभ को पाप-पुण्य का फल मानना किसी भी हालत में उचित नहीं है । शंका-यदि बाह्य सामग्री का लाभालाभ पुण्य-पाप का फल नहीं है तो फिर एक गरीब और दूसरा श्रीमान् क्यों होता है ? समाधान-एक का गरीब और दूसरे का श्रीमान् होना यह व्यवस्था का फल है, पुण्य-पाप का नहीं । जिन देशों में पूजीवादी व्यवस्था है और व्यक्तिगत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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