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[ कर्म सिद्धान्त
श्री केदार नाथजी और श्री मशरूवाला दोनों कर्म फल के नियम के बारे में सामूहिक जीवन की दृष्टि से विचार करते हैं। मेरे जन्मगत और शास्त्रीय संस्कार वैयक्तिक कर्मफलवाद के होने से मैं भी इसी तरह सोचता था। परन्तु जैसे-जैसे इस पर गहरा विचार करता गया, वैसे-वैसे मुझे लगने लगा कि कर्मफल का नियम सामूहिक जीवन की दृष्टि से ही विचारा जाना चाहिए और सामूहिक जीवन की जिम्मेदारी के ख्याल से ही जीवन का हरएक व्यवहार व्यस्थित किया तथा चलाया जाना चाहिये। जिस समय वैयक्तिक दृष्टि की प्रधानता हो, उस समय के चिन्तक उसी दृष्टि से अमुक नियमों की रचना करें, यह स्वाभाविक है । परन्तु उन नियमों में अर्थ विस्तार की संभावना ही नहीं है, ऐसा मानना देश-काल की मर्यादा में सर्वथा जकड़ जाने जैसा है। जब हम सामूहिक दृष्टि से कर्म फल का नियम विचारते या घटाते हैं, तब भी वैयक्तिक दृष्टि का लोप तो होता ही नहीं, उलटे सामूहिक जीवन में वैयक्तिक जीवन के पूर्ण रूप से समा जाने के कारण वैयक्तिक दृष्टि सामूहिक दृष्टि तक फैलती है और अधिक शुद्ध बनती है।
कर्मफल के नियम की सच्ची प्रात्मा तो यही है कि कोई भी कर्म निष्फल नहीं जाता और कोई भी परिणाम कारण के बिना उत्पन्न नहीं होता । जैसा परिणाम वैसा ही उसका कारण भी होना चाहिये। यदि अच्छे परिणाम की इच्छा करने वाला अच्छे कर्म नहीं करता, तो वह वैसा परिणाम नहीं पा सकता। कर्म फल नियम की यह प्रात्मा सामहिक दृष्टि से कर्मफल का विचार करने पर बिल्कुल लोप नहीं होती। केवल वैयक्तिक सीमा के बन्धन से मुक्त' होकर वह जीवन-व्यवहार गढ़ने में सहायक बनती है। आत्म समानता के सिद्धान्त के अनुसार विचार करें या आत्माद्वैत के सिद्धान्त के अनुसार विचार करें, एक बात तो सुनिश्चित है कि कोई व्यक्ति समूह से बिल्कुल अलग न तो है और न उससे अलग रह सकता है । एक व्यक्ति के जीवन इतिहास के लंबे पट पर नजर दौड़ा कर विचार करें तो हमें तुरन्त दिखाई देगा कि उसके ऊपर पड़े हुए और पड़ने वाले संस्कारों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से दूसरे असंख्य व्यक्तियों के संस्कारों का हाथ है । और वह व्यक्ति जिन संस्कारों का निर्माण करता है, वे भी केवल उसमें ही मर्यादित न रहकर समूहगत अन्य व्यक्तियों में प्रत्यक्ष या परम्परा से संचरित होते रहते हैं । वस्तुतः समूह या समष्टि का अर्थ है व्यक्ति या व्यष्टि का सम्पूर्ण जोड़।
यदि हर एक व्यक्ति अपने कर्म और फल के लिये पूरी तरह से जिम्मेदार हो और अन्य व्यक्तियों से बिल्कुल स्वतन्त्र उसके श्रेय-अश्रेय का विचार केवल उसी के साथ जुड़ा हो, तो सामूहिक जीवन का क्या अर्थ है ? क्योंकि बिल्कुल अलग, स्वतन्त्र और एक-दूसरे के असर से मुक्त व्यक्तियों का सामूहिक जीवन में प्रवेश केवल प्राकस्मिक ही हो सकता है । यदि ऐसा अनुभव होता हो कि सामूहिक
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