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३२ । वैयक्तिक एवं सामूहिक कर्म
0 पं० सुखलाल संघवी
अच्छी-बुरी स्थिति, चढ़ती-उतरती कला और सुख-दुःख की सार्वत्रिक विषमता का पूरा स्पष्टीकरण केवल ईश्वरवाद या ब्रह्मवाद में मिल ही नहीं सकता था। इसलिये कैसा भी प्रगतिशीलवाद स्वीकार करने के बावजूद स्वाभाविक रीति से ही परम्परा से चला आने वाला वैयक्तिक कर्मफल का सिद्धान्त अधिकाधिक दृढ़ होता गया। 'जो करता है वही भोगता है', 'हर एक का नसीब जुदा है, 'जो बोता है वह काटता है', 'काटने वाला और फल चखने वाला एक हो और बोने वाला दूसरा हो यह बात असंभव है'-ऐसे-ऐसे ख्याल केवल वैयक्तिक कर्मफल के सिद्धान्त पर ही रूढ़ हुए हैं। और सामान्यतः उन्होंने प्रजा-जीवन के हर क्षेत्र में इतनी गहरी जड़ें जमा ली हैं कि अगर कोई यह कहे कि किसी व्यक्ति का कर्म केवल उसी में फल या परिणाम उत्पन्न नहीं करता, परन्तु उसका असर उस कर्म करने वाले व्यक्ति के सिवाय सामूहिक जीवन में भी ज्ञात-अज्ञात रूप से फैलता है, तो वह समझदार माने जाने वाले वर्ग को भी चौंका देता है । और हरएक सम्प्रदाय के विद्वान् या विचारक इसके विरुद्ध शास्त्रीय प्रमाणों का ढेर लगा देते हैं । इसके कारण कर्म फल का नियम वैयक्तिक होने के साथ ही सामूहिक भी है या नहीं, यदि न हो तो किस-किस तरह की असंगतियाँ और अनुपत्तियाँ खड़ी होती हैं और यदि हो तो उस दृष्टि से ही समग्र मानव-जीवन का व्यवहार व्यवस्थित होना चाहिये या नहीं, इस विषय में कोई गहरा विचार करने के लिये रुकता नहीं है। सामूहिक कर्म फल के नियम की दृष्टि से रहित, कर्म फल के नियम ने मानव-जीवन के इतिहास में आज तक कौन-कौनसी कठिनाइयां खड़ी की हैं और किस दृष्टि से कर्म फल का नियम स्वीकार करके तथा उसके अनुसार जीवन-व्यवहार बनाकर वे दूर की जा सकती हैं, कोई एक भी प्राणी दुःखी हो, तो मेरा सुखी होना असंभव है। जब तक जगत् दु:ख मुक्त नहीं होता, तब तक अरसिक मोक्ष से क्या फायदा? इस विचार की महायान भावना बौद्ध परम्परा में उदय हुई थी। इसी तरह हर एक सम्प्रदाय सर्व जगत् के क्षेम-कल्याण की प्रार्थना करता है और सारे जगत् के साथ मैत्री करने की ब्रह्मवार्ता भी करता है। परन्तु यह महायान भावना या ब्रह्मवार्ता अंत में वैयक्तिक कर्म फल वाद के दृढ़ संस्कार के साथ टकराकर जीवन जीने में ज्यादा उपयोगी सिद्ध नहीं हुई है।
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