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________________ मुक्तक अपने उपार्जित कर्म फल को, जीव पाते हैं सभी, उसके सिवाय कोई किसी को, कुछ नहीं देता कभी। ऐसा समझना चाहिये, एकाग्रमन होकर सदा। दाता अपर है भोग का, इस बुद्धि को खोकर सदा । दोहा चिट्ठी लायो चून की, माँगे घी नै दाल, दास कबीरा यूं कहें, थारी चिट्ठी सामी माल । कायसा वयसा मत्त, वित्त गिद्ध य इत्थिसु । दुहमो मलं संचिरणइ, सिसुरणागुव्व मट्टियं ॥ -उत्तराध्ययन ४।१० अर्थ-काया से, वचन से और मन से मदान्ध बना हुआ तथा धन और स्त्रियों में आसक्त बना हुआ अज्ञानी दोनों प्रकार से (राग-द्वेषमयी बाह्य और आभ्यन्तर प्रवृत्तियों द्वारा) कर्म मल का संचय करता है । जैसे अलसिया मिट्टी खाता है और उसे शरीर पर भी लगाता है । जह मिडलेवलित्त गरुयं तुम्वं अहे वयइ, एवं पासव कय कम्म जीवा वच्चति प्रहरगई। तं चेव तविमुक्कं जलोवरि गइ जाय लहुभावं, जह तह कम्म विमुक्का लोयगा पइठिया होंति ॥ अर्थ-जिस प्रकार मिट्टी से लिप्त तुम्बा भारी होकर नीचे चला जाता है उसी प्रकार जीव कर्मों के लेप से लिप्त हो भारी बन कर अधोगति को प्राप्त होता है । वही तुम्बा मिट्टी के लेप से मुक्त होकर लघुता को प्राप्त होता हुआ जल के ऊपरी सतह पर आ जाता है । जीव भी इसी प्रकार कर्म मुक्त होने पर लोक के अग्रभाग पर प्रतिष्ठित हो जाता है। यथा धेनु सहस्रषु वत्सो विन्दति मातरम् । तथा पूर्व कृतं कर्म, कर्तारमनुगच्छति ॥ अर्थ-जिस प्रकार गौ वत्स हजारों गायों में भी अपनी माता को पहिचान लेता है, उसी प्रकार कर्ता के पूर्व कृत कर्म भी उसका ही अनुसरण करते हैं (अन्य का नहीं) अर्थात् कर्मों का कर्ता ही उसके फल का भोक्ता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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