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आधुनिक हिन्दी महाकाव्यों में कर्म एवं पुनर्जन्म की अवधारणा ] [ २३३ है । इसी मान्यता को अभिव्यक्ति प्रदान करते हुए नन्दकिशोर झा अपने महाकाव्य 'प्रिय मिलन' में कहते हैं
"क्लेश-मूल कर्माशय, बन्धन में बन्धा जीव । जन्मता ौ मरता, उसे कभी न विराम है।"
(पृ० ३१०) जब तक जीवात्मा कर्म बन्धनों से मुक्त नहीं हो जाती उसे बार-बार जन्म लेना पड़ता है
"जब तक न कर्म हो जाते है, सम्पूर्णतया निर्मल यहाँ। तब तक होता है पुनर्जन्म, निज कर्मों के अनुकूल यहाँ ।"
(परम ज्योति महावीर, पृ० ४६१) रघुवीर शरण 'मित्र' पुनर्जन्म विषयक उक्त अवधारणा में ही आस्था प्रकट करते, हुए कहते हैं
"जब तक कर्मों के बन्धन हैं, मिलता रहता है जन्म नया ।"
(वीरायन, पृ० १३८) जीव को जीवन-मरण से तब तक मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती जब तक कि वह अपने कर्मों का क्षय नहीं कर लेता
"जब-तक न कर्म क्षय होते हैं, तब तक होता अवतरण-मरण । कर्मों के क्षय होते ही तो, कर लेती इसको मुक्ति वरण ॥"
(परम ज्योति महावीर, पृ० ४७८) दिनकर के 'उर्वशी' महाकाव्य की निम्नांकित पंक्ति भी कवि की पुनर्जन्म में आस्था की द्योतक है"कब, किस पूर्व जन्म में उसका क्या सुख छीन लिया था।"
(पृ० ३१) कर्म एवं पुनर्जन्म की उक्त अवधारणा का भारतीय जन-जीवन पर इतना व्यापक प्रभाव पड़ा है कि प्रत्येक महाकाव्यकार ने इसे किसी-न-किसी रूप में स्वीकार किया है । यही कारण है कि हिन्दी के अधिकांश महाकाव्यों में उक्त अवधारणा का निरूपण हुआ है । उक्त विवेचित महाकाव्यों के अतिरिक्त 'नल नरेश' (पृ. २३२), 'विदेह' (पृ० ६६), 'आंजनेय' (पृ० २०-२२) 'कल्पान्त' (पृ० ६२), 'जानकी जीवन' (पृ० १६६-६७), विरहिणी' (पृ० २६), 'मीरा' (पृ० ३०) तथा 'तीर्थंकर महावीर' (पृ० १०५) प्रभृति महाकाव्यों में भी कर्म एवं पुनर्जन्म के प्रति आस्था की स्पष्ट झलक परिलक्षित होती है।।
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