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________________ मसीही धर्म में कर्म की मान्यता ] [२०३ के कारण से नहीं होती। यदि जीव तप और शुभ कर्मों के द्वारा प्रयास करे तो जीव अज्ञान से छुटकारा पा लेता है और उसे समस्त पूर्व जन्मों और कृतियों की स्मृति हो जाती है ।' भारतीय दर्शन के अवलोकन से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि हिन्दू धर्म, जैन धर्म और बौद्ध धर्म में भले ही कर्म विषयक एवं उसकी मान्यता के संबंध में भिन्नता हो, किन्तु वे सभी कर्म ही को प्रधानता देते हैं और नैतिकता का प्राधार कर्म ही को मानते हैं। भारतीय विद्वानों ने कर्म सिद्धान्त पर बल देते हुए यह दर्शाया है कि मसीही धर्म में कर्म विचार की कमी है जैसा कि प्राचार्य रजनीश ने 'महाबीर वाणी' में कहा है कि "इस्लाम और ईसाइयत में बहुत मौलिक प्राचार की कमी है, कर्म के विचार की।"२ हिन्दू धर्म में ईश्वर को सत्ता को स्वीकार किया गया है किन्तु ईश्वर कर्म के व्यापार में हस्तक्षेप नहीं करता। कर्म को मान्यता को बताते हुए लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने लिखा है कि "कर्म का यह चक्र जब एक बार प्रारम्भ हो जाता है, तब उसे फिर परमेश्वर भी नहीं रोक सकता।'3 एक अन्य स्थान पर उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि "कर्म अनादि है; और उसके अखंड व्यापार में परमेश्वर भी हस्तक्षेप नहीं करता।"४ इसका अर्थ यह हुआ कि कर्म की अपनी पृथक् सत्ता है व ईश्वर की अलग पृथक् सत्ता है। इस प्रकार द्वैत की विचारधारा जन्म लेती है। कर्म को अनादि कहना और परमेश्वर का हस्तक्षेप न मानने के कारण ही पाश्चात्य विद्वानों ने भारतीय दर्शन एवं धर्म में मान्यता प्राप्त कर्म के प्रत्यय की आलोचना की है। पाश्चात्य विद्वानों द्वारा, पालोचना : फरक्यूअर ने अपनी पुस्तक 'दी क्राउन अॉफ हिन्दूइज्म' में कर्म की आलोचना करते हुए लिखा है कि कर्म और पुनर्जन्म ने एक नये सिद्धान्त को रूप 8. "The other point of difference they stress on is that while Hindus think Karma, as formless, Jains believe Karma to have shape. Karma according to its origin does inflict hurt or benefit, it Must have a form. Some Hindus believe that it is owing to maya (illusion) that all remembrance of the deeds done in previous birth, which led to the accumulation of Karma is forgotten; but Jains hold that it is owing to Ajnana (ignorance) and when the soul by means of austerity and good actions has got rid of Ajnana it attains omniscience and remembers all the births it has undergone and all that happened in them." Heart of Jainism - Stevenson, P. 175. २. महावीर वाणी-प्राचार्य रजनीश, पृ. ५०५ ३. गीता रहस्य -बालगंगाधर तिलक, पृ. २७६ (हिन्दी अनुवाद) ४. वही-पृ. २८८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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