________________
सांख्यदर्शन में कर्म ]
[ १६५
का प्रयास किया गया है । जीव (पुरुष) को सांख्यदर्शन अकर्ता मानता हुआ भी बंधन एवं मुक्ति की प्रक्रिया से गुजरता है ।
जैन दर्शन की भाँति सांख्यदर्शन भी पुनर्जन्म को स्वीकार करता है | दार्शनिक जिसे कार्मणशरीर कहते हैं, सांख्यदार्शनिक उसे लिङ्गशरीर अथवा सूक्ष्म शरीर कहते हैं । विदेहमुक्ति होने पर यह लिङ्गशरीर समाप्त हो जाता है ।
सत्व, रजस्, तमस् इन तीनों गुणों से युक्त प्रकृति को सांख्यदर्शन कर्त्री मानता है तथा इसे ही पुरुष को मुक्ति दिलाने में सहायक भी मानता है । प्रकृति एवं पुरुष का संयोग ही कर्म (संस्कार) को उत्पन्न करता है जिसके फलस्वरूप भोग प्राप्त होता है । अंत में कैवल्य की प्राप्ति विवेकख्याति (सम्यग्ज्ञान) से होती है ।
श्रातमराम
राग - मांढ
अष्ट करम म्हारो काँई करसी जी, में म्हारे घर राखूं राम । इन्द्री द्वारे चित्त दौरत है, तिन वश ह्व नहीं करस्यू काम || अष्ट० ॥१॥
इनको जोर इतोही मुझपे, दुःख दिखलावे इन्द्री ग्राम । जाको जातू में नहीं मानूं, भेदविज्ञान करूं विश्राम ॥ श्रष्ट० ॥२॥
तब विधि श्राते मेरे धाम ।
कहु राग कहु दोष करत थो, सो विभाव नहीं घारू कंबहूँ, शुद्ध स्वभाव रहूँ श्रभिराम ॥ श्रष्ट० ॥३॥
जिनवर मुनि गुरु की बलि जाऊ, जिन बतलाया मेरा ठाम । सुखी रहत हूँ दुःख नहि व्यापत, 'बुधजन' हरषत श्राठों याम ॥ श्रष्ट० || ४ ||
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
- बुधजन
www.jainelibrary.org