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[ कर्म सिद्धान्त 'सांख्यकारिका' में कहा गया है-'न प्रकृतिर्न न विकृतिः पुरुषः।' अर्थात् पुरुष न कारण है और न कार्य ही। वह त्रिगुणातीत, विवेकी, विषयी, चेतन, अप्रसवधर्मी, अविकारी, कूटस्थ, नित्य, मध्यस्थ, द्रष्टा एवं अकर्ता होता है। जो गुण एक कर्मरहित जीव में जैनदर्शन बतलाता है वे ही गुण सांख्यदर्शन एक पुरुष में निरूपित करता है। 'सांख्यकारिका' में निरूपित सिद्धान्त के अनुसार वस्तुतः यह चेतन पुरुष न कभी बन्ध को प्राप्त हुआ है और न होगा
तस्मान्न बध्यतेऽद्धा न मुच्यते नापि संसरति कश्चित् ।
संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः ।। अर्थात् किसी पुरुष का न तो बन्धन होता है और न संसरण और मोक्ष ही । अनेक पुरुषों के आश्रय से रहने वाली प्रकृति का ही संसरण, बन्धन और मोक्ष होता है । वास्तव में प्रकृति ही समस्त सृष्टि का मूल कारण है । प्रकृति से ही बुद्धि, अहंकार, मन, ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, पंचतन्त्रमात्राएँ एवं पञ्चमहाभूत उद्भूत हुए हैं। प्रकृति ही समस्त दृश्य है। फिर भी प्रकृति एकाकिनी रहकर कुछ भी नहीं कर सकती । पुरुष का संयोग होने पर ही प्रकृति सृष्टि का निर्माण करने में सक्षम होती है । प्रकृति का पुरुष के साथ वैसा ही संयोग है जैसा अन्धे एवं पंगु व्यक्ति का संयोग होता है-'पङ ग्वन्धवदुभयोरपि संयोगस्तत्कृतः सर्गः।' पंगु एवं अन्धा व्यक्ति जिस प्रकार मिलकर अपना प्रयोजन सिद्ध कर लेते हैं उसी प्रकार प्रकृति के संयोग से पुरुष अपना प्रयोजन सिद्ध कर लेता है। प्रकति का पुरुष के साथ यह संयोग कैवल्य की प्राप्ति के लिए ही होता है, किन्तु यह संयोग अनादिकाल से चला आ रहा है । बन्धन-प्रक्रिया:
प्रकृति एवं पुरुष का संयोग ही बन्धन है। यह बन्धन अविवेक के कारण होता है । वास्तव में तो पुरुष निर्विकार, अकर्ता एवं द्रष्टा है और प्रकृति की है किन्तु प्रकृति पुरुष का संयोग पाकर ही कार्य करती है। प्रश्न तो तब उपस्थित होता है जब पुरुष अकर्ता, द्रष्टा एवं निर्विकार होते हुए भी अपने को सुखी, दुःखी एवं बन्धन में बँधा हुअा अनुभव करता है । सांख्यदर्शनशास्त्री इसका समाधान करते हुए कहते हैं-बुद्धि एक ऐसा तत्त्व है जिसमें चेतन पुरुष भी संक्रान्त होता है और अनुभूयमान वस्तु भी संक्रात होती है । फलस्वरूप चेतन पुरुष उस वस्तु से प्रभावित अनुभव होता है और बंधन को प्राप्त हो जाता है । यद्यपि पुरुष एवं प्रकृति अत्यन्त भिन्न हैं तथापि पुरुष को इस पार्थक्य का बोध नहीं रहता, इसलिए वह अपने को बंधा हुआ अनुभव करता है । 'सांख्यकारिका' में कहा है
तस्मात्तत्संयोगादचेतनं चेतनावदिव लिङ्गन् । गुणकर्तृत्वेऽपि तथा कर्तेव भवत्युदासीनः ।।
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