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________________ २५ | सांख्यदर्शन में कर्म . 0 श्री धर्मचन्द जैन सांख्यदर्शन के प्रवर्तक थे महर्षि कपिल । कपिल ने सांख्यदर्शन का प्रणयन करते हुए मूल रूप से जैनदर्शन के सदृश दो ही तत्त्व स्वीकार किए-पुरुष और प्रकृति । कपिल के पुरुष को जैनदर्शन में जीव एवं प्रकृति को अजीव शब्द से पुकारा जा सकता है। जिस प्रकार जनदर्शन में जीव एवं अजीव के सम्बन्ध से ही अन्य समस्त तत्त्वों की उत्पत्ति स्वीकार की गई है, उसी प्रकार सांख्यदर्शन में पुरुष एवं प्रकृति के संयोग से ही समस्त तत्त्वों की उत्पत्ति मानी गई है। सांख्यदर्शन में पच्चीस तत्त्व माने गए हैं-प्रकृति, बुद्धि, अहंकार, मन, पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ, पञ्च कर्मेन्द्रियाँ, पाँच तन्मात्राएँ, पाँच महाभूत एवं पुरुष । सेश्वर सांख्य के अनुयायी ईश्वर को भी छब्बीसवाँ तत्त्व मानते हैं। कर्म-परिचय : यद्यपि सांख्यदर्शन में 'कर्म' शब्द का प्रयोग कहीं नहीं हुआ है किन्तु जैनदर्शन में प्रयुक्त 'कर्म' शब्द की अर्थाभिव्यक्ति मिलती है। तभी तो ईश्वरकृष्ण विरचित 'सांख्यकारिका' के प्रारम्भ में ही आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक इन तीनों प्रकार के दुःखों के आत्यन्तिक क्षय की बात कही गई है । जैनदर्शन में दुःखों को कर्मों का फल माना गया है और कर्मों का विभाजन ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय आदि रूपों से आठ भागों में किया गया है । सांख्यदर्शन में भी जो कुछ सुख-दुःख होते हैं वे अविवेक अथवा अनादि अविद्या के कारण होते हैं। यह अविवेक ही कर्मों का अथवा संसार में भ्रमण करने का मूल कारण है । इसकी समाप्ति होने पर कैवल्य की प्राप्ति हो जाती है और दुःख-सुख से पुरुष सदा के लिए मुक्त हो जाता है। फिर वह जीवनमुक्ति (अरिहन्तावस्था) एवं विदेहमुक्ति (सिद्धावस्था) को भी प्राप्त कर लेता है। शरीर के रहते हुए जीवनमुक्ति की अवस्था रहती है तथा शरीर के छूटने के पश्चात् विदेहमुक्ति की अवस्था आजाती है । पुरुष एवं उसका संयोग : ___ जैनदर्शन तथा सांख्यदर्शन में एक मूलभूत अन्तर यह है कि जैनदर्शन जीव को ही समस्त सुख-दुःखों (कर्मों) का कर्ता एवं भोक्ता प्रतिपादित करता है जबकि सांख्यदर्शन इसको अकर्ता एवं द्रष्टा के रूप में प्रतिपादित करता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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