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________________ जैन, बौद्ध और गीता के दर्शन में कर्म का स्वरूप ] [ १८५ नहीं है अत: अकर्म है । जिन्हें जैन दर्शन में इर्यापथिक क्रियाएँ या अकर्म कहा गया है उन्हें बौद्ध परम्परा अनुपचित, अव्यक्त या अकृष्ण, अशुक्ल कर्म कहती है और जिन्हें जैन परम्परा साम्परायिक क्रियाएँ या कर्म कहती हैं उन्हें बौद्ध परम्परा उपचित कर्म या कृष्ण-शुक्ल कर्म कहती है । आएँ, जरा इस सम्बन्ध में विस्तार से विचार करें। बौद्ध दर्शन में कर्म-अकर्म का विचार : ___ बौद्ध विचारणा में भी कर्म और उनके फल देने की योग्यता के प्रश्न को लेकर महाकर्म विभंग में विचार किया गया है, जिसका उल्लेख श्रीमती सूमादास गुप्ता ने अपने प्रबन्ध "भारत में नैतिक दर्शन का विकास" में किया है।' बौद्ध दर्शन का प्रमुख प्रश्न यह है कि कौन से कर्म उपचित होते हैं। कर्म के उपचित से तात्पर्य संचित होकर फल देने की क्षमता के योग्य होने से है। दूसरे शब्दों में कर्म के बन्धन कारक होने से है । बौद्ध परम्परा का उपचित कर्म जैन परम्परा के विषयोदयी कर्म से और बौद्ध परम्परा का अनुपचित कर्म जैन परम्परा के प्रदेशोदयी कर्म (इपिथिक कर्म) से तुलनीय है। महाकर्म विभंग में कर्म की कृत्यता और उपचितता के सम्बन्ध को लेकर कर्म का एक चतुर्विद वर्गीकरण प्रस्तुत किया गया है। १. वे कर्म जो कृत (सम्पादित) नहीं हैं लेकिन उपचित (फल प्रदाता) हैं-वासनाओं के तीव्र आवेग से प्रेरित होकर किये गये ऐसे कर्म संकल्प जो कार्य रूप में परिणित न हो पाये हैं, इस वर्ग में आते हैं। जैसे किसी व्यक्ति ने क्रोध या द्वेष के वशीभूत होकर किसी को मारने का संकल्प किया हो लेकिन वह उसे मारने की क्रिया को सम्पादित न कर सका हो। २. वे कर्म जो कृत हैं लेकिन उपचित भी हैं-वे समस्त ऐच्छिक कर्म जिनको संकल्प पूर्वक सम्पादित किया गया है, इस कोटि में आते हैं। यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि अकृत उपचित कर्म और कृत उपचित कर्म दोनों शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के हो सकते हैं। ३. वे कर्म जो कृत हैं लेकिन उपचित नहीं हैं-अभिधम्मकोष के अनुसार निम्न कर्म कृत होने पर उपचित नहीं होते हैं अर्थात् अपना फल नहीं देते हैं :(अ) वे कर्म जिन्हें संकल्प पूर्वक नहीं किया गया है अर्थात् जो सचिन्त्य नहीं हैं, उपचित नहीं होते हैं। १-डेवलपमेन्ट आफ मारल फिलासफी इन इंडिया, पृष्ठ १६८-१७४ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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